श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
इस तरह सत्त्वगुण सुख और ज्ञान के संग (आसक्ति) से साधक को बाँध देता है अर्थात उसको गुणातीत नहीं होने देता। यह संग ही रजोगुण है जो बाँधने वाला है।[1] यदि साधक सुख और ज्ञान का संग न करे तो सत्त्वगुण उसको बाँधता नहीं, प्रत्युत उसको गुणातीत कर देता है। तात्पर्य है कि यदि संग न हो तो साधक सत्त्वगुण से भी ऊँचा उठ जाता है और अपने गुणातीत स्वरूप का अनुभव कर लेता है। सत्त्वगुण से सुख और ज्ञान होने पर साधक को यह सावधानी रखनी चाहिए कि यह सुख और ज्ञान मेरा लक्ष्य नहीं है। ये मेरे भोग्य नहीं है। ये तो लक्ष्य की प्राप्ति में कारण हैं। मेरे को तो उस लक्ष्य को प्राप्त करना है, जो इस सुख और ज्ञान को भी प्रकाशित करने वाला है। सुख, ज्ञान आदि सभी सत्त्वगुण की वृत्तियाँ हैं। ये कभी घटती हैं, कभी बढ़ती हैं; कभी आती हैं, कभी जाती हैं। परंतु अपना स्वरूप निरंतर एकरस रहता है। उसमें कभी घट-बढ़ नहीं होती। अतः साधकों को सत्त्वगुण की वृत्तियों से सदा तदस्थ, उदासीन रहना चाहिए। उनका उपभोग नहीं करना चाहिए। इससे यह सुख और ज्ञान की आसक्ति में फँसेगा नहीं। अगर साधक सत्त्वगुण से होने वाले सुख और ज्ञान का संग न करे, तो उसका शीघ्र ही परमात्मप्राप्ति हो जाती है। परंतु अगर वह इनके संग का त्याग न करे तो (परमात्मप्राप्ति का लक्ष्य होने से) समय पाकर उसकी इस सुख और ज्ञान से स्वतः अरुचि हो जाती है और वह परमात्मप्राप्ति कर लेता है। संबंध- रजोगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार क्या है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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