श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
चतुर्दश अध्याय
‘तन्निबधांति कौन्तेय कर्मसंगेन देहिनम्’- रजोगुण कर्मों की आसक्ति से शरीरधारी को बाँधता है अर्थात रजोगुण के बढ़ने पर ज्यों-ज्यों तृष्णा और आसक्ति बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों मनुष्य की कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। कर्म करने की प्रवृत्ति बढ़ने से मनुष्य नये-नये कर्म करना शुरु कर देता है। फिर वह रात-दिन इस प्रवृत्ति में ही फँसा रहता है अर्थात मनुष्य की मनोवृत्तियाँ रात-दिन नये-नये कर्म आरंभ करने के चिन्तन में लगी रहती है। ऐसी अवस्था में उसको कल्याण, उद्धार करने का अवसर ही प्राप्त नहीं होता। इस तरह रजोगुण कर्मों की सुखासक्ति से शरीरधारी को बाँध देता है अर्थात जन्म-मरण में ले जाता है। अतः साधक को प्राप्त परिस्थिति के अनुसार निष्काम भाव से कर्तव्य कर्म तो कर देना चाहिए, पर संग्रह और सुखभोग के लिए नये-नये कर्मों का आरंभ नहीं करना चाहिए।
‘देहिनम्’ पद का तात्पर्य है कि देह से अपना संबंध मानने वाले देही को ही यह रजोगुण कर्मों की आसक्ति बाँधता है। सकामभाव से कर्मों को करने में भी एक सुख होता है और ‘कर्मों का अमुक फल भोगेंगे’ इस फलासक्ति में भी एक सुख होता है। इस कर्म और फल की सुखासक्ति से मनुष्य बँध जाता है। कर्मों की सुखासक्ति से छूटने के लिए साधक यह विचार करे कि ये पदार्थ, व्यक्ति, परिस्थिति, घटना आदि कितने दिन हमारे साथ रहेंगे। कारण कि सब दृश्य प्रतिक्षण अदृश्यता में जा रहा है; जीवन प्रतिक्षण मृत्यु में जा रहा है; सर्ग प्रतिक्षण प्रलय में जा रहा है; महासर्ग प्रतिक्षण महाप्रलय में जा रहा है। आज दिन तक जो बाल्य, युवा आदि अवस्थाएँ चली गयीं, वे फिर नहीं मिल सकतीं। जो समय चला गया, वह फिर नहीं मिल सकता। बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं और धनियों की अंतिम दशा को याद करने से तथा बड़े-बड़े राजमहलों और मकानों के खंडहरों को देखने से साधक को यह विचार आना चाहिए कि उनकी जो दशा हुई है, वही दशा इस शरीर, धन-संपत्ति, मकान आदि की भी होगी। परंतु मैंने इनके प्रलोभन में पड़कर अपनी शक्ति, बुद्धि, समय को बरबाद कर दिया है। यह तो बड़ी भारी हानि हो गयी। ऐसे विचारों से साधक के अंतःकरण में सात्त्विक वृत्तियाँ आयेंगी और वह कर्मसंग से ऊँचा उठ जाएगा।
अगर मैं रात-दिन नये-नये कर्मों के करने में ही लगा रहूँगा, तो मेरा मनुष्य जन्म निरर्थक चला जाएगा और न कर्मों की आसक्ति से मेरे को न जाने किन-किन योनियों में जाना पड़ेगा और कितनी बार जन्मना-मरना पड़ेगा। इसलिए मुझे संग्रह और सुख-भोगने के लिए नये-नये कर्मों का आरंभ नहीं करना है, प्रत्युत प्राप्त परिस्थिति के अनुसार अनासक्त भाव से कर्तव्य-कर्म करना है! ऐसे विचारों से भी साधक कर्मों की आसक्ति से ऊँचा उठ जाता है।
संबंध- तमोगुण का स्वरूप और उसके बाँधने का प्रकार क्या है- इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।
|