श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
एकादश अध्याय
आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद । अर्थ- मुझे यह बताइये कि उग्ररूप वाले आप कौन हैं? हे देवताओं में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार हो। आप प्रसन्न होइये। आदिरूप आपको मैं तत्त्व से जानना चाहता हूँ; क्योंकि मैं आपकी प्रवृत्ति को नहीं जानता। व्याख्या- ‘आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद’- आप देवरूप से भी दिख रहे हैं और उग्ररूप से भी दिख रहे हैं; तो वास्तव में ऐसे रूपों को धारण करने वाले आप कौन हैं? अत्यन्त उग्र विराट रूप को देखकर भय के कारण अर्जुन नमस्कार के सिवाय और करते भी क्या? जब अर्जुन भगवान के ऐसे विराट रूप को समझने में सर्वथा असमर्थ हो गये, तब अंत में कहते हैं कि हे देवताओं में श्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। भगवान अपनी जीभ से सबको अपने मुखों में लेकर बार-बार चाट रहे हैं, ऐसे भयंकर बर्ताव को देखकर अर्जुन प्रार्थना करते हैं कि आप प्रसन्न हो जाइये। ‘विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्’- भगवान का पहला अवतार विराट (संसार) रूप में ही हुआ था। इसलिए अर्जुन कहते हैं कि आदिनारायण! आपको मैं स्पष्ट रूप से नहीं जानता हूँ। मैं आपकी इस प्रवृत्ति को भी नहीं जानता हूँ कि आप यहाँ क्यों प्रकट हुए हैं? और आपके मुखों में हमारे पक्ष के तथा विपक्ष के बहुत से योद्धा प्रविष्ट होते जा रहे हैं, अतः वास्तव में आप क्या करन चाहते हैं? तात्पर्य यह हुआ कि आप कौन हैं और क्या करना चाहते हैं- इस बात को मैं जानना चाहता हूँ और इसको आप ही स्पष्ट रूप से बताइये। एक प्रश्न होता है कि भगवान का पहला अवतार विराट (संसार के) रूप में हुआ और अभी अर्जुन भगवान के किसी एक देश में विराट रूप देख रहे हैं- ये दोनों विराट रूप एक ही हैं या अलग-अलग? इसका उत्तर यह है कि वास्तविक बात तो भगवान ही जानें पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्जुन ने जो विराट रूप देखा था, उसी के अंतर्गत यह संसार रूपी विराट रूप भी था। जैसे कहा जाता है कि भगवान सर्वव्यापी हैं, तो इसका तात्पर्य केवल इतना ही नहीं है कि भगवान केवल संपूर्ण संसार में ही व्याप्त हैं, प्रत्युत भगवान संसार से बाहर भी व्याप्त हैं। संसार तो भगवान के किसी अंश में है तथा ऐसी अनन्त सृष्टियाँ भगवान के किसी अंश में हैं। ऐसे ही अर्जुन जिस विराट रूप को देख रहे हैं, उसमें यह संसार भी है और इसके सिवाय और भी बहुत कुछ है। संबंध- पूर्वश्लोक में अर्जुन ने प्रार्थनापूर्वक जो प्रश्न किया था, उसका यथार्थ उत्तर भगवान आगे के श्लोक में देते हैं। |
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