श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
मन:प्रसाद: सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रह: ।
उत्तर- मन की निर्मलता और प्रसन्नता को ‘मनःप्रसाद’ कहते हैं, अर्थात् विषाद-भय, चिन्ताशोक, व्याकुलता-उद्विग्नता आदि दोषों से रहित होकर मन का विशुद्ध होना तथा प्रसन्नता, हर्ष और बोधशक्ति से युक्त हो जाना ही ‘मन का प्रसाद’ है। प्रश्न- ‘सौम्यत्वम्’ किसको कहते हैं? उत्तर- रूक्षता, डाह, हिंसा, प्रतिहिंसा, क्रूरता, निर्दयता आदि तापकारक दोषों से सर्वथा शून्य होकर मनका सदा-सर्वदा शान्त और शीतल बने रहना ही ‘सौम्यत्व’ है। प्रश्न- ‘मौनम्’ पद का क्या भाव है? उत्तर- मन का निरन्तर भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, स्वरूप, लीला और नाम आदि के चिन्तन में या ब्रह्मविचार में लगे रहना ही ‘मौन’ है। प्रश्न- ‘आत्मविनिग्रह’ क्या है? उत्तर- अन्तःकरण की चंचलता का सर्वथा नाश होकर उसका स्थिर तथा अच्छी प्रकार अपने वश में हो जाना ही ‘आत्मविनिग्रह’ है। प्रश्न- ‘भावसंशुद्धि’ किसे कहते हैं? उत्तर- अन्तःकरण में राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह, मद-मत्सर, ईर्ष्या-वैर, घृणा-तिरस्कार, असूया-असहिष्णुता, प्रमाद, व्यर्थ विचार, इष्टविरोध और अनिष्टचिन्तन आदि दुर्भावों का सर्वथा नष्ट हो जाना और इसके विरोधी दया, क्षमा, प्रेम, विनय आदि समस्त सद्भावों का सदा विकसित रहना ‘भावसंशुद्धि’ है। प्रश्न- इन सब गुणों का मानस (मनसम्बन्धी) तप कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- ये सभी गुण मन से सम्बन्ध रखने वाले और मन को समस्त दोषों से रहित करके परम पवित्र बना देने वाले हैं; इसलिये इनको मानस-तप बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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