श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहिंत च यत् ।
उत्तर- जो वचन किसी के भी मन में जरा भी उद्वेग उत्पन्न करने वाले न हों तथा निन्दा या चुगली आदि दोषों से सर्वथा रहित हों-उन्हें ‘अनुद्वेगकर’ कहते हैं। जैसा, देखा, सुना और अनुभव किया हो, ठीक वैसा-का-वैसा ही भाव दूसरे को समझाने के लिये जो यथार्थ वचन बोले जायँ-उनको ‘सत्य’ कहते हैं। जो सुनने वालों-को प्रिय लगते हों तथा कटुता, रूखापन, तीखापन, ताना और अपमान के भाव आदि दोषों से सर्वथा रहित हों- ऐसे प्रेमयुक्त मीठे, सरल और शान्त वचनों को ‘प्रिय’ कहते हैं। तथा जिनसे परिणाम में सबका हित होता हो; जो हिंसा, द्वेष, डाह, वैर से सर्वथा शून्य हों और प्रेम, दया तथा मंगल से भरे हों-उनको ‘हित’ कहते हैं। ‘वाक्यम्’ पद के साथ ‘च’ का प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि जिस वाक्य में अनुद्वेगकारिता, सत्यता, प्रियता, हितकारित-इन सभी गुणों का समावेश हो एवं जो शास्त्रवर्णित वाणी सम्बन्धी सब प्रकार के दोषों से रहित हो- उसी वाक्य के उच्चारण को वाचिक तप माना जा सकता है; जिसमें इन दोषों का कुछ भी समावेश हो या उपर्युक्त गुणों में से किसी गुण का अभाव हो, वह वाक्य सांगोपांगवाचिक वाणी सम्बन्धी ) तप नहीं है। प्रश्न- ‘स्वाध्यायाभ्यसनम्’ का क्या अभिप्राय है? उत्तर- यथाधिकार वेद, वेदांग, स्मृति, पुराण, और स्तोत्रादि का पाठ करना; भगवान् के गुण, प्रभाव और नामों का उच्चारण करना तथा भगवान् की स्तुति आदि करना- सभी ‘स्वाध्यायाभ्यसनम्’ पद से गृहीत होते हैं। प्रश्न- इन सबको वाचिक तप कहने का क्या अभिप्राय है? उत्तर- उपर्युक्त सभी गुण वाणी से सम्बन्ध रखने वाले और वाणी के समस्त दोषों का नाश करके अन्तःकरण के सहित उसे पवित्र बना देने वाले हैं, इसलिये इनको वाणी सम्बन्धी तप बतलाया गया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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