श्रीमद्भगवद्गीता तत्त्वविवेचनी हिन्दी-टीका -जयदयाल गोयन्दका
सप्तदश अध्याय
श्रद्धया परया तप्तं तपस्तत्त्रिविधं नरै: ।
उत्तर- जो मनुष्य इस लोक या परलोक के किसी कार के भी सुख भोग अथवा दुःख की निवृत्तिरूप फल की कभी किसी भी कारण से किंचिन्मात्र भी कामना नहीं करता, उसे ‘अफलाकांक्षी’ कहते हैं; और जिसके मन, बुद्धि और इन्द्रिय अनासक्त, निगृहीत तथा शुद्ध होने के कारण, कभी किसी भी प्रकार के भोग के सम्बन्ध से विचलित नहीं हो सकते, जिसमें असक्ति का सर्वथा आभाव हो गया है, उसे ‘युक्त’ कहते हैं। अतः इसका प्रयोग करके निष्कामभाव की आवश्यकता सिद्ध करते हुए भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि उपयुक्त तीन प्रकार का तप जब ऐसे निष्काम पुरुषों द्वारा किया जाता है तभी वह पूर्ण सात्त्विक होता है। प्रश्न- ‘परम श्रद्धा’ कैसी श्रद्धा को कहते हैं और उसके साथ तीन प्रकार के तप का करना क्या है? उत्तर- शास्त्रों में उपयुक्त तप का जो कुछ भी महत्त्व, प्रभाव और स्वरूप् बतलाया गया है-उस पर प्रत्यक्ष से भी बढ़कर सम्मानपूर्वक पूर्ण विश्वाश होना ‘परम श्रद्धा’ है और ऐसी श्रद्धा से युक्त होकर बड़े-से-बड़े विघ्नों या कष्टों की कुछ भी परवा न करके सदा अविचलित रहते हुए अत्यन्त आदर और उत्साहपूर्वक उपयुक्त तप का आचरण करते रहना ही उसे परम श्रद्धा से करना है। प्रश्न- ‘तपः’ पद के साथ ‘तत्’ और ‘त्रिविधम्’- इन विशेषणों के प्रयोग का क्या भाव है? उत्तर- इनका प्रयोग करके भगवान् ने यह भाव दिखलाया है कि शरीर, वाणी और मन-सम्बन्धी उपर्युक्त तप ही सात्त्विक हो सकते हैं। इनमें भिन्न जो अन्य प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक तप हैं- जिनका इसी अध्याय के पाँचवे श्लोक में ‘अशास्त्रविहितम्’ और ‘घोरम्’ विशेषण लगाकर निरूपण किया गया है- वे तप सात्त्विक नहीं होते। साथ ही यह भी दिखलाया है कि चौदहवें, पंन्द्रहवें और सोलहवें श्लोक में जिन कायिक, वाचिक और मानसिक तपों का स्वरूप बतलाया गया है- वे स्वरूप से तो सात्त्विक हैं; परन्तु वे पूर्ण सात्त्विक तब होते हैं, जब इस श्लोक में बतलाये हुए भाव से किये जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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