विषय सूचीभागवत सुधा -करपात्री महाराजषष्ठ-पुष्प 2. माया संतरण का अमोघ उपायमाया ने कहा-‘‘यह हम से बनेगा नहीं। जब तक जीव विमुख रहेंगे भगवान से, मैं उन्हें सताती ही रहूँगी। हाँ प्रभु के सम्मुख हो जाँय तो नहीं सताऊँगी।’’ भयं द्वितीग्राभिनिवेशतः स्यादीशादपेतस्य विपर्ययोअस्मृतिः। (ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है। इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ’ इस प्रकार का भ्रम-विपर्यय हो जाता है। देहादि अन्य वस्तुओं में अभिनिवेश-तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेक भय होत हैं। इसलिये अपने गुरु को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये।) यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। अर्थात् जिसकी परात्पर परब्रह्म भगवान में अखण्ड भक्ति है और गुरुदेव में अनन्य प्रीति है, वेद-वेदान्तार्थ[4] उसी की बुद्धि में अधिरूढ़ होते हैं, सबकी बुद्धि में आते नहीं। अर्थात जो ईश्वर का नाम जपता है और अखण्ड, अनन्त, परात्पर परब्रह्म ईश्वर परमात्मा का अखण्ड अनुसन्धान करता रहता है, उसे प्रत्यक चैतन्य का भी अधिगम होता है, सर्व प्रकार के अन्तराय[7] का भी अभाव हो जाता है। इस तरह भगवान् के सम्मुख होने से अस्मृति निवृत्त हो जाती है, भगवत्स्वरूप’ का बोध हो जाता है, अतएव विपर्यय निवृत्त हो जाता है। विपर्यय के निवृत्त होने से द्वितीयाभिनिवेश खत्म हो जाता है। द्वितीयाभिनिवेश खतम होने से भय खतम हो जाता है। एक ही श्लोक में बन्ध कैसे होता है। और मोक्ष कैसे होता है, यह बताया- ‘भयं द्वितीयाभिनिवेशत’। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीधर स्वामी के शब्दों में श्लोकार्थ इस प्रकार है-
ननु किमेव परमेश्वरभजनेन अज्ञानकल्पितभयस्य ज्ञानैकनिवर्त्यत्वादित्या- शंक्याह- भयमिति। यतो भयं तन्मायया भवेदतो बुधो बुद्धिमांस्तमेवाभजेत्। ननु भयं देहाद्यभिनिवेशतो भवति, स च देहाहंकारतः, स च स्वरूपास्मरणात् किमत्र तस्य माया करोत्यत आह- ईशादपेतस्येति। ईशविमुखस्य तन्माययाअस्मृतिर्भगवतः स्वरूपाास्फूर्तिस्ततो विपर्ययो देहोअस्मीति, ततो द्वितीयाभिनिवेशाद्धय भवति। एवं हि प्रसिद्धं लौकिकीष्वपि मायासु। उक्तं च भगवता- ‘‘दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।’’ इति। एकयाअव्यभिचारिण्या भक्त्या भजेत्। कि च गुरुदेवतात्मा गुरुदेव देवता ईश्वर आत्मा प्रेष्ठश्च यस्य तथादृष्टिः सन्नित्यर्थः।(भागवत 11.2.37) - ↑ भागवत 11.2.37
- ↑ श्वेताश्वतरोपनिषद् 6.23
- ↑ श्वेताश्रतर में कहे हुए अर्थ
- ↑ रामचरितमानस 3.35.9
- ↑ योगदर्शन 1.29
- ↑ विघ्न
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