भागवत सुधा -करपात्री महाराजभगवत्तत्त्व का साक्षात्कार भगवान के विशेष अनुग्रह से ही संभव है। अथापि ते देव पदाम्बुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि। हे देव! भगवान्! आपका लोकोत्तर स्परूप और माहात्स्य सर्वथा अद्भुत ही है। उसके ज्ञान से सकल दुःख-दोषों की-सम्पूर्ण जगत की निवृत्ति हो जाती है। जो पुरुष आपके युगल चरण-कमलों का तनिक-सा भी कृपा प्रसाद प्राप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वहीं आपके लोकोत्तर माहात्म्य को जान सकता है, दूसरा कोई ज्ञान-वैराग्यादि साधन रूप अपने प्रयत्न से बहुत काल तक कितना भी अनुसन्धान करता रहे, आपकी महिमा का यथार्थ ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता।।) यो ब्राह्मणं विदधाति पूर्व यो वै वेदाँश्च प्रहिणोति तस्मै। प्रपत्ति भगवत्-शरणागति के बिना भगवत्-स्वरूप का अनुभव असम्भव हैः- मां च योअव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते। मुझ सर्वभूत हृदयाश्रित नारायण का जो कभी भी न व्यभिचरित होने वाले भक्ति रूप योग के द्वारा सेवन करता है, वह गुणातीत होकर मोक्ष प्राप्त करने में समर्थ होता है।।) सोई जानइ जेहि देहु जनाई। आप जिसको चाहें, उसको जना दें। तुम्हारिहि कृपाँ तुम्हहि रघुनन्दन। आपकी कृपा से ही आपके स्परूप का ज्ञान संभव है। इसलिए कहा है- नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। अर्थात बहुत प्रवचन से ब्रह्मात्म- तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, ऐसा मत समझो। बहुत श्रवण करने से ब्रह्मात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है, ऐसा मत समझो। धारणाशक्तिमती मेधा के द्वारा ब्रह्मात्म-तत्त्व समझ में आ जायगा, सो भी नहीं। तब कैसे आयेगा? ‘यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः’ रामानुजाचार्य जी महाराज की व्याख्या है- भगवान्[9] जिस साधक को स्वयं वरण करते हैं, वही उनको पाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भागवत 10/14/29
- ↑ कण
- ↑ श्वेताश्वतरोपनिषद् 6/18
- ↑ गीता 13/10
- ↑ भगवद्गीता 14/26
- ↑ रामचरित मानस 2/126/3
- ↑ रामचरित मानस 2/126/5
- ↑ कठोपनिषद् 1/2/23
- ↑ परमात्मा
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