श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
इन गीता आदि शास्त्रों के प्रतिपाद्य भजनीय ईश्वर को त्यागकर गोपकुमार मुझ में सर्वोत्तमत्व आरोपित कर मेरी स्तुति कर रहे हो और मेरा आश्रय ग्रहण कर रहे हो, किसलिये? श्रीकृष्ण कीवात सुनकर उक्त भावों से विवश हुए श्रीलीलाशुक अपने हाथ हिलाकर बोले- हे विभो ! सर्वावतारिन् ! तुम्हारा चरित्र अति विचित्र है। तुम में ही इस भुवन का भवन है, सर्वान्तर्यामी होने से तुम ही सबके आश्रय हो। यह अवश्य ही आश्चर्यजनक है, किन्तु तुम जो प्रत्यक्ष दृश्यमान हो- तुम्हारा यह नेत्ररसायन चरित्र और भी विचित्र है- इस अद्भुत अननुमेय (अकल्पनीय) ऐश्वर्यमय चरित से भी अधिक विचित्र है। अथवा तुम्हारे ऐश्वर्यमय चरितपर विचार करें तब भी यह दृश्यमान व्रजचरित ही सर्वोत्तम प्रतिपन्न होगा- इसमें कोई विवाद नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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