सारंगरंगदा
ननु यद्येवं तर्हि कवयः कथं मन्मुख- स्मितादिकं तत्तत्साम्येन वर्णयन्ति त्वया वा कथं न वर्ण्यमित्यत्र सगर्वपरिहासमाह द्वाभ्याम्- भो विदग्धशेखर यदि शुश्रूष से तदा पूर्वैः प्राचीनैर- पूर्वकविभिर्यत्- प्रणिधान- पूर्वमपि न कटाक्षितं न दृष्टं तच्छृणु। यद्वा, प्राणिधानपूर्वं शृण्विति परिहासः। सावधानः सन्नित्यर्थः। किं तत्- अयं शशिप्रदीपो भवदाननेन्दोर्नीराजनक्रमधुरां निर्मञ्छन- परिपाटीभारं चिराय निर्व्याजं यथा स्यात्तथार्हति। त्वदाननं निर्मञ्छय दूरे प्रक्षेप्तुं योग्योऽयमित्यर्थः।।98।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक की बात सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हे लीलाशुक ! यदि यही बात है, जो कविगण मेरे मुख से हास्य आदि की चंद्र कमल के साथ तुलना कर वर्णन क्यों करते हैं? तुम उस प्रकार वर्णन क्यों नहीं करते?
श्रीकृष्ण की यह बात सुनकर श्रीलीलाशुक सगर्व परिहास के साथ दो श्लोक पढ़ते हैं- हे विदग्धशेखर ! यदि इस बात का उत्तर सुनना चाहते हो, तो सुनो, बताता हूँ- प्राचीन और अप्राचीन कवि चंद्र पद्म आदि के साथ तुम्हारे मुख की तुलना किया करते हैं; उन्होंने सावधान होकर इस विषय पर विचार नहीं किया। अथवा परिहास के साथ बोले- तुम प्रणिधानपूर्वक या सावधान होकर सुनो। श्रीकृष्ण बोले- ऐसा क्या है, जो सावधान होकर सुनना होगा? यह शशि-प्रदीप (कर्पूर का नाम शशि या चंद्र) तुम्हारे वदनचंद्र की निराजन (आरति) परिपाटी का भार चिरकाल के लिए निर्व्याज या निष्कपट से पाने के योग्य हो गया है। नीराजन के पश्चात प्रदीप को दूर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार आकाश के चाँद को कर्पूरवर्तिका का बना कर उससे तुम्हारे मुखचंद्र की आरति कर उसे दूर फेंक दिया जाए, वह इसके योग्य है।
आरति बड़ी प्रीति का अनुष्ठान है। कर्पूरवर्तिका द्वारा श्रीकृष्ण के श्रीमुखचंद्र की आरति कर उससे उनकी अला-बला दग्ध कर दग्ध प्रदीप को दूर निक्षेप किया जाता है। श्रीकृष्ण ने श्रीलीलाशुक के मुख से वर्णन सुनने की इच्छा से नाना युक्तियों द्वारा चंद्र कमल आदि के साथ उपमा देकर अपने मुख की शोभा वर्णन करने के लिए उन्हें उत्साहित किया, यह भी कहा कि पूर्व कवियों ने भी यही किया है।
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