श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण की उक्ति है-
द्वारका में मणिभित्ति (दीवार) में अपना प्रतिबम्बित रूप देखकर श्रीकृष्ण बोले- यह किसका अति विपुल माधुर्य स्फुरित हो रहा है, अदृष्टपूर्व (जो पहले नहीं देखा)? पार्श्व- माधुरी देखने के लिए उन्होंने अपना मस्तक झुकाया, तो उस परछाईं में भी मस्तक अवनत होते देख हँसकर बोले- ओ ! यह तो मेरा ही माधुर्य है, जिसे देखकर मैं भी लुब्धचेता होकर श्रीराधा की तरह इस माधुरी के आस्वादन की कामना कर रहा हूँ। मैंने तुमसे पहले कहा है कि सहस्र-सहस्र सुनयनायें और श्रुतियाँ तुम्हारे श्रृंगाररसराज स्वरूप का चिह्नमात्र भी नहीं देख पाईं, माधुर्यास्वादन तो दूर। यह केवल व्रजवधुओं का ही आस्वाद्य है। साक्षात् श्रृंगार श्रीकृष्ण की रसराज मूर्ति के माधुर्य के आस्वादन में एकमात्र गोपीभाव की ही उपजीव्यता है (वह गोपीभाव से ही सम्भव है)। गोपीभाव श्रीकृष्ण के विभु माधुर्य को निरन्तर वर्धित या पुष्ट करता है और उस निरन्तर वर्धनशील माधुर्य का आस्वादन भी करता है। गोपीशिरोमणि राधारानी के अखण्ड मादन नामक महाभाव द्वारा श्रीकृष्ण का समग्र माधुर्य ही आस्वादित होता है। श्रीकृष्ण की उक्ति-
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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