सारंगरंगदा
तस्य तद्रसावेशं विलोक्याह- इदं श्रृंगारश्चासौ रसराजत्वाद्रसानां सर्वस्वञ्च यत्तदाश्रये। ननु स तावदमूर्तस्तत्राह- भुवनं तत्स्थजीवचय आश्रयो यस्य तादृशोऽप्यंगीकृतो नराकारो येन् तत्। नवाकार इति पाठे- स्वीकृतो नूतनाकारो येन। तद्रस एवायं मूर्तिमानित्यर्थः। तदुक्तम्-[1]- ‘श्रृंगारः सखि मूर्तिमान्’ इत्यत्र। कीदृशम्- शिखिपिच्छविभुषणम्। यद्वा, शिखिपिच्छ- विभूषणममुमाश्रये। कीदृशम्- स्वरूपपे णांगीकृतः सदा गृहीतो नराकारो येन। तत्र हेतुः- ‘ब्रह्ममोहने’[2] तत्स्वरूपेणैव भुवनानां तत्तद्वैकुण्ठानां तत्तद् व्रह्माण्डानाञ्चाश्रयम्। तस्मिन्नेवोत्पन्नप्रलीनत्वात्तेषाम्। तादृशमपि श्रृंगाररस एव सर्वस्वं यस्य तादृशञ्च। तस्य सर्वस्वं वा।।93।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक ने श्रीकृष्ण का श्रृंगाररसावेश देख कर यह श्लोक कहा है। यह जो श्रृंगाररस के– रसराजत्व के कारण रससमूह के सर्वस्वधन हैं; इन्हीं श्रीकृष्ण का आश्रय ग्रहण करता हूँ। कहा जा सकता है कि रस वस्तु तो अमूर्त है, अर्थात् किसी चमत्कारित्वपूर्ण आस्वाद्य वस्तु ‘रस’ कहा जाता हैं। यह रसवस्तु सहृदयक साधक के चित्त में स्वयं उदत होकर अनुभूत हुआ करती है। साधक की अनुभूति ही रस है, इसकी तो कोई मूर्ति नहीं। इसके उत्तर में कहते हैं- ‘भुवनाश्रयम्’ समस्त जीवों के आश्रय होकर भी जिन्होंने नर-आकार को अंगीकार किया है। ‘नराकार’ के स्थान पर ‘नवाकार’ पाठ भी है। उसका अर्थ होगा- श्रृंगाररस ने ही नया आकार धारण दिया है। अतएव कृष्ण की मूर्तिमन्त श्रृंगाररस हैं। श्रीगीतगोविन्द में कविजयदेव ने भी लिखा है- “श्रृंगार सखि मूर्तिमानवि मधौ मुग्धौ हरिः क्रीड़ति”- सखि ! मुग्धनायक श्रीकृष्ण इस मधुमास में मूर्तिमन्त श्रृंगाररस की तरह विहार कर रहे हैं।
श्रीमद् रूपगोस्वामिपाद ने श्री उज्ज्वल नीलमणि ग्रंथ में नायकभेद प्रकरण में यह श्लोक उद्धृत किया है। श्रील विश्वनाथ चक्रवर्तिपाद ने वहाँ ‘आनन्दचंद्रिका’ टीका में श्रृंगाररसः सर्वस्वं यस्येति बहुव्रीहिणा तदभावे कृष्णः सोऽपि गतसर्वस्वो रंक इति भवतीति व्यज्यते। श्रृंगाररस्य सर्वस्वमि तत् पुरुषेण श्रृंगाररसोऽपि तं बिना स्वस्य वैयर्थ्यं जानातीति। अर्थात् ‘श्रृंगाररसः सर्वस्वं यस्य’ इस बहुव्रीहि समास से पद की व्याख्या करें तो अर्थ होगा- श्रृंगाररस ही जिनकी सर्वस्व सम्पदा है; श्रृंगाररस के अभाव में वे भी मानो सर्वहारा रंक की तरह हैं। फिर जो ‘श्रृंगाररसस्य सर्वस्व’ इस प्रकार षष्टी तत्पुरुष से व्याख्या करें तो इसका अर्थ होगा- जो श्रृंगाररस के सर्वस्व हैं, उनके बिना श्रृंगाररस की व्यर्थता है।
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