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सारंगरंगदा
अथ श्रीराधया सर्वाभिर्वा कृतलीला- विशेषस्य तस्य शोभाविशेषं विलोक्य सहर्षमाह- कृष्णदेवः क्रीडन् कृष्णः किमपि गुम्फति माधुरीसुमनोमालां ग्रथ्नाति। कीदृशः – कान्तायास्तासां वा सालिंगन-चुम्बनाधरपानार्थं यत् कुचग्रहणं तत्र कुट्टमिताख्यभावेन हस्तादिक्षेपेण निवारयन्त्या तया ताभिर्वा सह यो विग्रहस्तेन लब्धाः श्रीमदंगे लग्ना ये ते च, लक्ष्मीः शोभा तद् युक्ताश्च। मध्यपदलोपी समासः। खण्डाः खण्डखण्डाश्चे-दृशस्तस्यास्तासां वा सिन्दूरकुंकुमचंदना- ञ्जनाद्यंगरागाणां ये लवास्तै रञ्जिता, अतोऽतिमञ्जुला श्रीः शोभा यस्य। तेन विग्रहेण लब्धा या लक्ष्मीस्तया च तदंगसंगेन खण्डाः क्वचित् कवचित् खण्डिता ये कुंकुमादिनिजांगरा-गास्तेषां लवैश्च रञ्जिता स्वभावमञ्जुला श्रीर्यस्येति वा। तथा गण्डस्थल्यावेव मुकुरमण्डले तयोः खेलमाना घर्मांकुराः श्रमोत्थप्रस्वेदकणा यस्य। यद्वा, तस्या नर्मभिर्जितस्तां जेतुं नर्मप्रहेलिकादिरूपं किमपि गुम्फति।।91।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीराधा या सभी गोपियों के साथ लीलाविशेष में श्रीकृष्ण की शोभा विशेष का दर्शन कर श्रीलीलाशुक ने हर्ष के साथ यह श्लोक पढ़ा है। “कृष्णदेवः” जो क्रीड़ा करते हैं वे देव- वे सुमाधुरीरूपी कुसुमों की कैसी एक अपूर्व माला गूँथ रहे हैं !? कैसे ? श्रीकृष्ण कान्ताशिरोमणि श्रीराधा या समस्त गोपियों के आलिंगन, चुम्बन, अधरसुधापान के लिए कुचग्रहण आदि करने लगते हैं, तो परस्पर जो प्रणय कलह होता है, वह कुट्टमित नामक भावविशेष का व्यञ्जक होता है। श्रीकृष्ण राधारानी और गोपियों के कुचग्रहण आदि करते हैं, उस समय वे सब अपने हृदय की प्रीति के रहते हुए भी बाह्यरूप से जो क्रोध प्रकट करती हैं, उसे ‘कुट्टमित’ भाव कहा जाता है, यथा-
- “स्तनाधरादि-ग्रहणे हृत्प्रीतावपि सम्भ्रमात्।
- बहिः क्रोधो व्यथितवत् प्रोक्तं कुट्टमितं बुधैः।।”[1]
‘श्रीकृष्ण द्वारा स्तन अधर आदि पकड़े जाने पर गोपियाँ अपने हृदय की प्रीति के होते हुए भी सम्भ्रमवस व्यथिता की तरह जो क्रोध दिखाती हैं, उसे विद्वान लोग कुट्टमित कहते हैं।’ श्रीराधा के प्रति श्रीकृष्ण की उक्ति-
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