श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
यथा- “अत्र भीरपि यद्विभे- त्युक्त्या तस्या ऐश्वर्यज्ञानं व्यक्तम्। ततो यदि सा भीः सत्या न भवति तदा तस्या मोहोऽपि न सम्भवेदिति गम्यते स्फुटमेव चान्तर्भयमुक्तं भय- भावनया स्थितस्येति।” कुन्तीदेवी इस श्लोक में कह रही है ‘भय भी जिनसे डरता है’- इसमें उनका ऐश्वर्यज्ञान व्यक्त हुआ है। श्रीकृष्ण की दामबन्धन लीला में जिस भय की बात वे कह रही हैं, वह यदि सत्य न हो अर्थात् यशोदामाता के भय से वे यदि सत्य ही डर न जाएं, तो कुन्तीदेवी- जैसे तत्त्वज्ञानी भक्त को मोह कभी सम्भव ही नहीं। कुन्तीदेवी ने कहा है ‘भयभावनयास्थितस्य’, इससे श्रीकृष्ण का वास्तविक अन्तर्भय बताया गया है। इसके अतिरिक्त, माधुर्यभावमय व्रजभक्तों के प्रति श्रीकृष्ण की सभी भक्तिविनोदन लीलायें अभिनय हो जाएंगी। जो भक्ति भगवान् के हृदय में भक्त की प्रेमामाधुरी के आस्वादन की आकांक्षा जगाती है, वही भक्ति उनके हृदय में निविड़ मुग्धता आदि भी जगाती है। सर्वज्ञता मुग्धता इत्यादि विरोधी धर्मों का समाधान करने वाली है भगवान की अचिन्त्य शक्ति और तभी सर्वज्ञत्व के रहते मुग्धत्व सम्भव है।
‘विशेषतः नागरशिरोमणि श्रीकृष्ण आत्मरामता आदि सभी गुणों का परित्याग कर सकते हैं, किन्तु अपने प्रेष्ठजनों की अनुवश्यता का परित्याग कभी नहीं कर सकते। उसे तो आदर के साथ वरण ही करते हैं। इस प्रकार श्रेष्ठ जन की अधीनता भगवत्ता की भी चरमसीमा है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 2/4/227
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