श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
ऐश्वर्य-वीर्य आदि षड़विध महाशक्तियों के निकेतन स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने मल्लिका आदि विविध शरदीय पुष्पों से परिशोभित रजनी देखकर अपनी अघटन-घटन-पटीयसी योगमायाशक्ति को प्रकट कर गोपरमणियों के साथ रमण की इच्छा की। इस श्लोक में पहले ही ‘भगवानपि’ शब्द का प्रयोग कर श्रीशुकदेव मुनि ने जैसे रास-विहारी श्रीकृष्ण की रासलीला में ऐश्वर्यवीर्य आदि षड़विध महाशक्तियों की अभिव्यक्ति की बात की है, वैसे ही ‘योगमायामुपाश्रितः’ शब्द का प्रयोग कर यह भी इंगित किया है कि इस परम रसमयी लीला में श्रीकृष्ण की अघटन-घटन-पटीयसीशक्ति योगमाया ने ही उनके अनजाने में भी मुग्धता के अंतराल में उन अचिन्त्य शक्तियों की अभिव्यक्ति की ही। कारण श्रीकृष्ण के मन में ऐस्वर्य का अनुसंधान होने से अबाध लीलारस सम्भव न होता। जो भी हो, श्रीलीलाशुक बोले- यह तेजःपुञ्ज मेरे नयनों में प्रविष्ट होकर मेरे परमानन्दरूपी साम्राज्य का विस्तार कर रहा है। हृदय में व्याप्त होकर मुझे विस्मय से स्तम्भित कर रहा है। अहो, क्या आश्चर्य है ! वे कैसे हैं ? सर्वज्ञत्व और मुग्धत्व में सार्वभौम अर्थात् अति श्रेष्ठ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10/29/1
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