श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रीकृष्ण स्वयं हरि हैं, निखिल भगवत् स्वरूपों के मूल हैं। इसलिए उनका यह हरण कार्य भी सर्वाधिक प्रबल है। व्रज के घर-घर में दधि-नवनीत चोरी, व्रजबालाओं की वस्त्र चोरी, श्रीराधिका की हृदयचोरी- सर्वस्य चोरी। “चौराग्र- गण्यं पुरुषं नमामि।” श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक सामने स्फुरित श्रीकृष्ण स्वरूप को देखकर कह रहे हैं- महद्गण ने इन्हें जिस रूप में वर्णन किया है, और ये श्रुति-युक्ति में जिस रूप में भावित- निर्धारित हैं, ये वैसे ही हैं। ये मेरे हृदयकमल के अपहरणकर्ता हैं। मेरा हृदय ही कमल है, कारण- इसमें प्रेममकरन्द विद्यमान है; ये उसके हरणकर्ता हैं। मेरी बुद्धि सभी प्रकार से इनमें मग्न है। फिर जो अपनी परमरसमय पदवी की पराकाष्ठा देते हैं, ये वही हैं। जो मुनीन्द्रजन अर्थात् मुनियों में इन्द्र (श्रेष्ठ) हैं, उन्होंने इनके स्वरूप को मन समर्पित किया है। वे ही इनके निजजन हैं; अनिश्चय से जन्म उनके मानसताप को ये हरते हैं। फिर जो कृष्णरसमत्त व्रजवधुओं के वस्त्र अपहरण करते हैं, ये वही हैं। गिरिराज गोवर्धन धारण में इन्द्र का दर्प हरम किया है, ये वही हैं। तात्पर्य यही है कि ये अन्तर्यामी रूप से मुनियों के हृदय का अज्ञानमात्र हरते हैं, किन्तु अनुभव विशेष नहीं देते। व्रजवधुओं के वस्त्र मात्र हरण करते हैं किन्तु सम्भोगानन्द नहीं देते। इन्द्र का दर्प हरण कर व्रजजनों का पालन मात्र करते हैं। किन्तु मेरे लिए सभी कुछ किया है। अहो ! मेरा कैसा सौभाग्य है ! अथवा मुनीन्द्रजनों का मानसताप मात्र हरते हैं; गोपियों का वस्त्रमात्र, इन्द्र आदि का दर्प हरण करते हैं, किन्तु मन-हरण नहीं करते। हम लोगों का मनहरण किया है, यही वैशिष्ट्य है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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