श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
नन्वेकस्य कथमेतत् सम्भवेदिति विमृशन् ब्रह्ममोहनलीला- स्फूर्त्यास्य नैतदाश्चर्यमित्याह- “एकं सपाणिकवलम्”[1] इत्यादिदिशा धेनुपालिने। एकेन स्वरूपेणैवानन्तगोपाल-रूपायापि। लोकपालिने लोका अनन्तब्रह्माण्डानि तत्तदुपास्यतत्त-च्चतुर्भुजरूपेण तत्तत्पालिने। किंवा, अकारो विष्णुः, अस्य विष्णोर्लोका वैकुण्ठलो-कास्तत्पालिने।।76।। ‘आस्वादबिन्दु’ टीका राधारानी ही रासेश्वरी हैं, उन्हीं के लिए है रासक्रीड़ा; अन्यान्य त्रिशतकोटि गोपियाँ रासक्रीड़ा के सौष्ठव की वृद्धि के लिए रास-रसक्रीड़ा की उपकरण हैं। “राधासह क्रीड़ारस वृद्धिर कारण। आर सब गोपीगण रसोपकरण। कृष्णेर वल्लभा राधा-कृष्ण प्राण धन। ताँहा बिना सुखहेतु नहे गोपीगण।।”[2] दूसरे शब्दों में “राधा बिना रासक्रीड़ा नाहि भाय चिते”।[3] रासक्रीड़ा की बात दूर, राधरानी के बिना त्रिशतकोटि गोपियों का सान्निध्य भी श्रीकृष्ण को प्रीतिकर नहीं लगता। “शतकोटि गोपीते नहे काम-निर्वापण। इहातेह अनुमानि श्रीराधिकार गुण।।” फिर चारों ओर देखकर श्रीलीलाशुक बोले- ऐसी राधारानी के पयोधरों के बीच लेटने वाले होकर भी वे समस्त गोपियों के पयोधरों के उत्संग शायी हैं अर्थात् उन लोगों के निकट रहते हैं। यदि कहें कि एक ही देह से वैसी लीला कैसे सम्भव है, तो इस विषय में क्षण भर सोचकर ब्रह्ममोहन लीला की स्फूर्ति पाकर बोले- श्रीकृष्ण के लिए इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। ब्रह्ममोहन लीला में अकेले श्रीकृष्ण ने ही अनन्त धेनुपालक गोपालों का रूप धारण कर लोकपालक अर्थात् अनन्त ब्रह्माण्डों के उपास्य चतुर्भुज रूप को ब्रह्मा के आगे प्रगट किया था। बाद में पुनः उस रूप में दर्शन दिए- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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