श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
अन्त में बोले- “मद्वाणीनां विहरणपदं मत्तसौभाग्यभाजाम्” श्रीकृष्ण के सौन्दर्य माधुर्य लीला आदि का वर्णन करने में प्रोमोन्मत्त सौभाग्यशाली मेरी जो वाणी है, ये उसी वाणी के विहारस्थान हैं।[1]- “मम वाचि विजृम्भतां मुरारेर्मधुरिम्नः कणिकापि कापि कापि” मेरे वाक्य में श्रीकृष्णमाधुर्य की एक कणिका भी प्रकाशित हो जाए ! वही प्रार्थना श्रीकृष्ण की कृपा से फलित हो गईं, तभी कह रहे हैं- मेरी सौभाग्यशाली वाणी के यही विहारस्थान हैं।[2] - “समुज्जृम्भा गुम्फा मधुरिमकिरां मादृशगिरां त्वयि स्थाने याते दधति चपलं जन्मसफलम्” – हे कृष्ण ! मेरी चपल वाणी भी आपके आश्रय से धन्य हो गई।[3]- ‘विजयतां मम वाङ्मयजीवितम्’ मेरे वाक्य के जीवनस्वरूप श्रीकृष्ण की जय हो। श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- इस श्लोक में श्रीलालशुक भावना की परिपक्वता की स्थिति में अपने भाग्य पर मनन करते हुए श्रीकृष्ण का आश्चर्यजनक वर्णन कर रहे हैं। विस्मय के साथ कहते हैं- अहो ! मेरे पुण्यों की कैसी परिणति अर्थात् परिणाम या फल है। ये मेरे नयनों के समीप आ गये। ऐसा पुण्य-फल शास्त्रों में भी दुर्लभ है, कारण- ये वंशीरन्ध्रों में विगलित अमृतस्रोत के द्वारा मेरे वाक्यों के विहरणपद को सींच रहे हैं। अर्थात् वंशी के छिद्रों से विगलित जो अमृतप्रवाह है, उससे मेरी वाणी के विहरणपद या क्रीड़ा स्थान का सिञ्चन कर रहे हैं। जहाँ-जहाँ वंशीरव का अनुभव हो रहा है, वहाँ-वहाँ उस अनुभव का वर्णन करने में वाक्य रसमग्न हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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