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सुबोधनी
ततोऽपि निकटमायान्तमालोक्य सहर्षमाह- मत्पुण्यानां परिपाकोऽयं मन्नेत्रयोः सन्निधिमायाति। अहो आश्चर्यम्- वक्त्रचंद्र वहन्ती। कीदृशम्– स्वभावशीतलमपि माधुर्येण द्विगुणशीतलम्। तत्र हेतुः – वंश्या मार्गेण विशेषतो गलदमृतस्रोतसा जगत् सेचयन्ती। कति दूरे- मद्वचनानां गोचरर इत्यर्थः। मत्ता अनवस्थिता अपि यास्तद्विषयतया सौभाग्यं भजन्ति तासाम्।।75।।
सारंगरंगदा
तादृशस्तस्य साक्षाद्दर्शनानन्देन स्वसौभाग्यातिशयं मत्वा साश्चर्यमाह- अहो आश्चर्य मत्पुण्यानां परिणतिः परिपाकोऽयं मन्नेत्रयोः सन्निधत्ते साक्षाद्वभूव। अहो मम भाग्यमिति भावः। कीदृशी- वक्त्रचंद्र वहन्ती। कीदृशं तम्- स्वभावशीतलमपि माधुर्येण द्विगुणशिशिरम्। तथा, वंशीवीथीभिस्तन्मा- र्गैर्विशेषेण गलन्ति यान्यमृतस्रोतांसि तत् प्रवाहास्तै- र्व्रजेदेवीर्मां जगच्च सेचयन्ती। तथा, मद्वाणीनां विहरणपदं विहारस्थानम्। कीदृशम्- मत्ताः प्रेमोन्मत्ताश्च तत्सौन्दर्यादिवर्णनात् सौभाग्यभाजश्च यास्तासाम्। तद्वक्ष्यते च- “समुज्जृम्भा गुम्फा”[1] इत्यादौ।।75।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- श्रीलीलाशुक ने उस रूप में श्रीकृष्ण के साक्षात् दर्शन कर आनन्द में अपना अतिशय सौभाग्य मानकर आश्चर्य के साथ यह श्लोक पढ़ा है। अहो क्या आश्चर्य ! मेरे पुण्यों की परिणति अर्थात् जन्मजन्मान्तर में जो पुण्य सञ्चय किए हैं, उन सभी पुण्यों के परिपाक स्वरूप हैं ये। यहाँ भी लोकोक्ति में ही श्रीकृष्णदर्शन को पुण्यों की परिणति कहा गया है। प्रकृत पक्ष में (वस्तुतः) विश्व में ऐसा कोई पुण्य नहीं, जिसके फलस्वरूप आदमी को श्रीकृष्णदर्शन सम्भव हों। एकमात्र कृपालभ्य प्रेम से ही वह सम्भव हैं। श्रीकृष्ण रसस्वरूप, रसवस्तु, चमत्कारिता से पूर्ण हैं। यह चमत्कारिता ही रस का प्राण है। जो वस्तु कभी देखी नहीं, जिसकी बात कभी सुनी नहीं, यहाँ तक कि जिसके विषय में मन में सोच नहीं पाये; ऐसी एक अति आश्चर्यपूर्ण वस्तु सहसा नेत्रों के आगे उदित हो जाए, तो उसे देखकर नयन विस्फारित हो उठते हैं। पहले चित्त विस्फारित होता है, वही स्फारता नेत्रों में प्रकट होती है। यही चमत्कारिता है ऐसी चमत्कारितापूर्ण परमानन्दवस्तु को ही रस कहा जाता है। बहुत साधना के फलस्वरूप प्रेमप्राप्ति के पश्चात् प्रेमिक की उत्कण्ठा जब चरम पर पहुँचती है, तो श्रीकृष्ण कृपा कर उसे दर्शन देते हैं। तब प्रेमिक के चित्त में एक ऐसी अननुभूतपूर्व चमत्कारिता प्रकट होती है कि उसे लगता है, न जाने कितने कितने जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप इस वस्तु का साक्षात्कार मिला। वस्तुतः यह भजन की ही चरम परिणति है, पुण्य का परिपाक नहीं।[2]
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