श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
सुबोधनी सारंगरंगदा ‘आस्वादबिन्दु’ टीका रास में श्रीकृष्ण अन्तर्धान हुए; गोपियों के आगे पुनः आविर्भूत हुए, उन्हें देखकर गोपियों की विरहज्वाला तो शान्त हो गई, किन्तु उन लोगों के हृदय में ईर्ष्यालेश था। श्रीकृष्ण के ‘न पारयेऽहं’ इत्यादि वाक्यामृत द्वारा उनका मनोगत ईर्ष्यारूपी पंकलेश धुल गया, तो उन लोगों के हृदय में विलास-लालसा-तरंगिणी उच्छलित करने के लिए कृष्णमेघ ने वंशीनादामृत वर्षण किया। उससे उत्पन्न प्रेमानन्द के उद्रेक से श्रीलीलाशुक के मन में संशय हुआ- यह वस्तु क्या है, जो हम लोगों के आगे अनिर्वचनीय प्रेमधारा का वर्षण कर रही हैं? क्षण भर सोचकर बोले- ओ! समझ में आया, ये हम लोगों के देवता हैं। पुनः शंका के साथ कहा- ये कमल देवता ही नहीं, ये हम लोगों के वल्लभ हैं। फिर सप्रणय कहा- केवल यही नहीं, ये हम लोगों के जीवन-वल्लभ हैं। प्रश्न हो सकता है- यह कैसे जाना? इसके उत्तर में कहा है- इनकी अधरवीथी पर रखी (चित्रवद् अर्पित) जो वंशी है, उसी वंशी का निनाद सुनाई दे रहा है। यह देव श्रेणी को भी दुर्लभ है। वंशीनाद व्रजेन्दन्दन श्रीकृष्ण की ही असाधारण माधुरी है। देवताओं की बात दूर, अन्य किसी भगवत्स्वरूप में भी वंशीनाद नहीं है। अन्य भगवत्स्वरूपों की बात दूर, स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण की मथुरा द्वारका लीलाओं में भी वंशीमाधुरी नहीं है। इस वंशीमाधुर्य पर देव, मानव, स्थावरजंगम आदि विमोहित हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भा. 10/32/22
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