सुबोधनी
एवमत्यौत्सुक्यादार्तः सलालसमाशास्ते – विभोः रतिगलितकेशं कदा गुम्फामि। कीदृशम्- बहलं निविड़म्। तथा, ललाटालकञ्च कदोद्यच्छामि। कीदृशम्- विरलमलिपंक्तिवत् पृथक् पृथक् स्थितम्। तथा च, मृदुलं वचनं कदा श्रोष्यामि। विपुलं नयनं कदा द्रक्ष्यामि। मधुरमधरं कदा पाष्यामि। मधुरं वदनं कदा चुम्बिष्यामि। चपलं चरितं कदानुभविष्यामि। गाढार्त्या निगूढाभिव्यक्ते- र्वागसमाप्तिः।।61।।
सारंगरंगदा
अथ तदलाभान्मथुरावीथ्यं पतितः, पुनस्तस्या भूमौ निपत्य मूर्च्छन्त्याः, अधुनैवागतस्य तत्तन्माधुर्यमनु-भविष्यसीति सखीभिः प्रबोधिताया नेत्रे निमील्यैव कुञ्जे लीलावसानसमये तस्य स्वेष्टत्तत्सेवाद्यप्राप्ति- स्फूर्त्या ताः प्रति प्रलपन्त्या वचोऽनुवदन्नाह- नु भोः सख्यः विभोरेतद्दुःख हरणसमर्थस्य चिकुरम्। कदा चूडात्वेन बध्नामीति शेषः। एवमग्रेऽपि। कीदृशम्- बहलं स्निग्धनिविडम्। तथा, भ्रमरं ललाटालकं कदोद्यच्छामि। कीदृशम्- विरलमलिपंक्तिवत् पृथक् पृथक् स्थितम्। मृदुलं वचनं कदा श्रोष्यामि। विपुलं नयनं कदा द्रक्ष्यामि। मधुरमधरं कदा पास्यामि। मधुरं वदनं कदा चुम्बिष्यामि। चपलं चरतिं कदानुभविष्यामि गाढार्त्या लज्जया च वागसमप्तिः।। तदशान्तरद्वये सुगमम्।।61।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद ने इस श्लोक के अतंर्दशामूलक अर्थ में लिखा है कि श्रीकृष्ण की अप्राप्ति के कारण हताशावश श्रीमती रास्ते पर गिर पड़ीं और पुनः मूर्च्छित हो गईं। सखियों ने उन्हें चैतन्य करा आश्वासन दिया- ‘हे राधे ! श्रीकृष्ण अभी आयेंगे, तुम उनका माधुर्य अनुभव कर पाओगी।’ सखियों की बात से प्रबोधित होकर श्रीमती ने आँखें खोलीं, तो उन्हें कुञ्ज में लीला के अवसान के समय अभीष्ट सेवा आदि की अप्राप्ति की स्फूति हुई (यह अनुभव यह हुआ कि उन्हें सेवा का सुयोग नहीं मिला)। उस स्थिति में उन्होंने सखियों के आगे जो प्रलाप किया है उसी का अनुवाद किया है सखीभाव से श्रीलीलाशुक ने, इस श्लोक में।
राधारानी प्रलाप करते-करते बोलीं- हे सखियों ! श्रीकृष्ण विभु हैं, हम लोगो का दुःख हरण करने में सभी प्रकार से समर्थ हैं। उन्होंने कितनी ही बार शत-शत आसन्न मरण दुःख से हम लोगों की रक्षा की है। वे इस विपद में कब दर्शन देंगे और हम लोगों का विरह-दुःख दूर करेंगे? सहसा उन्हें स्फुरण हुआ- लीला के अवसान पर श्रीकृष्ण का केशवेश आदि अस्तव्यस्त होने पर वेशरचना की सेवा का स्फुरण !
|