सुबोधनी
पुनरुद्यदुत्कण्ठागुण्ठितः प्रार्थयते- नु भोः श्रीकृष्ण तव वदनाम्बुजं कदा वीक्षिष्ये। अम्बुज-तामापादयन्नाह- अश्रान्तं सततं स्मितं प्रकाशो यस्मिन्। तथा प्रकाशे हेतुः- अरुणादप्यरुणाव- धरोष्ठौ यत्र। स्मितमपि कथम्- हर्षेणार्द्रमतएव द्विगुणमनोज्ञं वेणुगीतं यत्र। तत्प्रकारमाह विशेषेण भ्रामतोर्भ्रमरवच्चञ्चलयोः प्रियेक्षणो- त्फुल्लविलोचन-योरर्धेनापांगेन वीक्षणेन मनोहरम्।।44।।
सारंगरंगदा
पुनः स्वप्रेरकतच्छीमुखस्फूर्त्या विषादौत्सुक्याभ्यां जह्यामसून् व्रतकृशा शतजन्मभिः स्यात्[1] इतिवत्, ध्यानेन याम पदयो: पदवीं सखे ते[2] इतिवच्च तं प्रति प्रलपन्त्या वचोऽनुवदन्नाह – नु भोः श्रीकृष्ण तव वदनाम्बुजमत्र जन्मनि न दृष्टमेव, कदापि जन्मान्तरेऽपि विक्षिष्ये। कीदृशम्- अश्रान्तं सततं स्मितं यस्मिन्। ईषत् स्मितं वा। अरुणा- रुणावरुणादप्यरुणौ ग्लानितमोध्नावधरोष्ठौ यस्मिन्। मत्प्रेरणहर्षेणार्द्रमतो द्विगुणमनोज्ञं वेणुगीतं यस्मिन्। मत्प्रेरणार्थं विभ्राम्यद्विपुल-विलोचनयोर्यदर्द्धं तेन मुग्धञ्च यत्। स्वान्तर्दशायाम्- पूर्ववत्।।44।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका
श्रील कविराज गोस्वामिपाद कहते हैं- पहले श्रीकृष्ण ने संकेत द्वारा श्रीमती राधारानी को कुञ्ज में भेजा था; स्वयं को प्रेरित करने वाला श्रीकृष्ण का वही श्रीमुख श्रीमती के हृदय में पुनः स्फुरित हुआ, फलस्वरूप उनके चित्त में विषाद औत्सुक्य जगे। जैसे श्रीमद् भागवत[3] में रुक्मिणी जी की उक्ति में देखते हैं- “यर्ह्यम्बुजाक्ष ने लभेय भवत्प्रसादं जह्यामसून् व्रतकृशाञ्छतजन्मभिः स्यात्”- हे कमलनयन ! यदि मैं तुम्हारा प्रसाद नहीं पा सकती, तो व्रतक्लिष्ट होकर सौ जन्मों में प्राण त्याग दूँगी, फिर भी तुम्हें छोड़ अन्य का वरण नहीं करूँगी। जैसे रासलीला में श्रीकृष्ण की उपेक्षावाणी सुनकर गोपियों ने प्रार्थना की है-
- “सिञ्चांग नस्त्वदधरामृतपूरकेण हासावलोककलगीतज- हृच्छयाग्निम्।
- नो चेद्वयं विरहजाग्न्युपयुक्त देहा ध्यानेन याम पदयोः पदवीं सखे ते।।”[4]
‘हे कृष्ण ! तुम्हारी सहास्य दृष्टि और सुमधुर मुरलीध्वनि से हम लोगों के चित्त में जो कामाग्नि प्रज्वलित हुई है, उसे अपने ही अधरामृतप्रवाह से शान्त करो, अन्यथा हे सखे ! हम लोग तुम्हारी विरह – अग्नि में दग्ध होकर तुम्हारे चरणों का ध्यान करते-करते जन्मान्तर में तुम्हारे चरण-सान्निध्य में उपस्थित होंगी।’
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