श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
कवि के आविर्भाव और ग्रंथ के रचनाकाल को लेकर बहुत मतभेद देखने में आता है। केवल प्रथा के अनुसार यदि यह स्वीकार किया जाए कि ये श्रीपाद पद्याचार्य के शिष्य और आचार्य शंकर के प्रशिष्य हैं, तो इन्हें नवीं शताब्दी का मानना होगा। श्रीविल्वमंगल ने श्रीशंकराचार्य का उल्लेख कहीं भी अपने गुरुवर्ग में नहीं किया। डॉ. विन्टरनिज लीलाशुक को ग्यारवीं शताब्दी का मानते हैं। इस पर भी आपत्ति की जा सकती है। ईसवी सन 1206 में बंगदेशीय श्रीधरदास द्वारा संकलित सदुक्तिकर्णामृत में श्रीलीलाशुक का कोई श्लोक उद्धृत नहीं हुआ। इन्होंने 465 कवियों के 2370 श्लोक संकलित किए हैं। यदि लीलाशुक नवीं या ग्यारहवीं शताब्दी के कवि होते, तो सदुक्तिकर्णामृत में उनका मूल्यवान् श्लोक अवश्य-अवश्य उद्धृत होता। श्रीरामकृष्ण कवि कहते हैं कि लीलाशुक ई. सन् 1250-1350 के बीच आविर्भूत हुए थे, क्योंकि विल्वमंगल के ‘पुरुषकार’ नामक दैव व्याकरण की टीका में आनुमानिक 1250 ई. सन् में आविर्भूत वोपदेव के व्याकरण का उद्धारण है। भोजदेव ग्यारहवीं शताब्दी के मध्य में, हेमचंद बारहवीं शताब्दी के मध्य में और वोपदेव तेरहवीं शताब्दी के मध्य में वर्तमान थे। श्रीलीलाशुक इन सबके बाद आविर्भूत हुए थे, यही लगता है। डॉ. सुशील कुमार दे व्याकरणशास्त्री लीलाशुक और कृष्णकर्णामृत के रचियता लीलाशुक को एक व्यक्ति मानने को राजी नहीं हैं। किंतु हम लोग कर्णामृत के द्वितीय शतक के चौथे श्लोक में देखते हैं-
‘हे मातः वाणि ! मेंने उदरपूर्ति के लिए खल व्यक्तियों के आगे किसी प्रकार का भय भ्रूक्षेप न कर तुम्हें नचाया है। इससे अधिक गर्हत कार्य और कुछ भी नहीं। तुम सहज सरला और वत्सला हो, मेरा वह अपराध क्षमा करो। मैं अब गोपवेशधारी विष्णु का गुणगान कर उसका प्रायश्चित करूँगा।’ ऐसी उक्ति से सहज ही यह धारणा होती है कि लीलाशुक ने ही प्रथम जीवन में (आरंभ में) जीविका निर्वाह के लिए व्याकरण आदि की टीका लिखी थी और परवर्तीकाल में श्रीकृष्णकर्णामृत की रचना की थी। हमें लगता है, एक ही शताब्दी में एक ही नाम के लेखक के विभिन्न ग्रंथ देखने में आयें, तो उन्हें एक लेखक का स्वीकार करने में किसी बाधा का रहना उचित नहीं है; विशेषतः उस स्थिति में जब उल्लिखित श्लोक उसके अनुकूल प्रमाण वहन करे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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