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- श्रील यदुनन्दन ठाकुर का पद्यानुवाद
- सखि हे एइ कृष्णेर अंगेर माधुरी।
- सदा स्फूर्त होउ मोरे, ज्योतिः पुञ्ज जेइ धरे,
- अभिराम नयन चातुरी।।
- यदि बोलो एइ कृष्ण, ना पाइले सदा तृष्ण,
- मन पय तापित विस्तार।
- छाड़ह लालसा काज, से नहे मूल लाज,
- दोषी मोर हइ अन्तर।।
- निजांग माधुरी दाने, मनोभृंग बान्धि टाने,
- दाहक विषेर सम, आविषयामृत जेन,
- परम लम्पट अनुक्षण।।
- मनोहर मुखपद्य, विदग्ध आनन्दसद्य,
- ताते स्मृत मधुरिमामृते।
- विपुल लोचनद्वय, श्रवण परसे ताय,
- देखि लोभ नहे कार चित्ते।।
- मनोज्ञ कुन्तर चूड़े, मत्तशिखि-पिच्छ उड़े,
- किबा शिखिपिच्छेर बान्धन।
- कहितेइ कृष्णामुखे, मन मुग्ध हैलो सुखे,
- पुनः श्लोक कैलो उच्चारण।। 5।।
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