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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 123
जो मानव इस पुण्यक्षेत्र भारत में किसी वैष्णव से तुम दोनों के मंत्र, स्तोत्र अथवा कर्ममूल का उच्छेद करने वाले कवच को ग्रहण करके परमभक्ति के साथ उसका जप करता है; वह अपने साथ-साथ अपनी सहस्रों पीढ़ियों का उद्धार कर देता है। जो मनुष्य विधिपूर्वक वस्त्र अलंकार और चंदन द्वारा गुरु का भलीभाँति पूजन करके तुम्हारे कवच को धारण करता है, वह निश्चय ही विष्णु-तुल्य हो जाता है। मात्रः! तुमने जो कुछ वस्तु मुझे समर्पित की है, उस सबको सार्थक कर डालो अर्थात अब मेरी प्रसन्नता के लिए उसे ब्राह्मण को दे दो। तब मैं उसका भोग लगाऊँगा; क्योंकि देवता का देने योग्य जो दान अथवा दक्षिणा होती है, वह सब यदि ब्राह्मण को दे दी जाय तो वह अनन्त हो जाती है। राधे! ब्राह्मणों का मुख ही देवताओं का प्रधान मुख है; क्योंकि ब्राह्मण जिस पदार्थ को खाते हैं, वही देवताओं को मिलता है[1]। मुने! तब सती राधिका ने वह सारा पदार्थ ब्राह्मणों को खिला दिया; इससे गणेश तत्काल ही प्रसन्न हो गये। इसी समय ब्रह्मा, शिव और शेषनाग आदि देवता देवश्रेष्ठ गणेश का पूजन करने के लिए उस वट वृक्ष के नीचे आये। तब एक शिवदूत वहाँ जाकर उन देवताओं तथा देवियों से यों कहने लगा। रक्षक (शिवदूत) ने कहा- देवगण! वृषभानुसूता राधा ने मुझे हटाकर शुभ मुहूर्त में स्वस्तिवाचन करके सर्वप्रथम गणेश की पूजा की है। पूजन में ऐसा कहा जाता है कि जो सर्वप्रथम पूजन करता है, वह अनन्त फल का भागी होता है और मध्य में पूजा करने वाले को मध्यम तथा अन्त में पूजने वाले को स्वल्प पुण्य प्राप्त होता है। ऐसा दशा में बहुत से देवशिरोमणियों, मुनिवरों और देवांगनाओं के रहते हुए उस राधा ने गोपियों के साथ देवश्रेष्ठ गणेश की पूजा की है। दूत की बात सुनकर सभी देवताओं, मुनियों मनुओं और राजाओं का समुदाय तथा देवांगनाएँ हँसने लगीं। वहाँ जो रुक्मिणी आदि महिलाएँ तथा देवियाँ थीं, उन्हें महान विस्मय हुआ। तत्पश्चात सावित्री, सरस्वती, परमेश्वरी पार्वती, रोहिणी, सती-संज्ञक स्वाहा आदि देवांगनाएँ तथा सभी पतिव्रता मुनिपत्नियाँ वहाँ आयीं। फिर सभी देवताओं, मनुओं तथा मनुष्यों का दल, गणसहित श्रीकृष्ण तथा अन्याय जो वहाँ उपस्थित थे, उन सभी लोगों ने हर्षपूर्वक पदार्पण किया। तत्पश्चात उन सबने शुभ मुहूर्त में बलवान और दुर्बल के क्रम से पृथक-पृथक विविध द्रव्यों द्वारा गणेश की पूजा की। इस प्रकार पूजन करके वे सभी सुखासन पर विराजमान हुए। इसी समय पार्वती परम हर्ष के साथ राधा के स्थान पर गयीं। पार्वती को आयी हुई देखकर राधा उतावली के साथ अपने आसन से उठ खड़ी हुईं और हर्षमग्न हो उनसे सादर यथायोग्य कुशल-समाचार पूछने लगीं। तत्पश्चात परस्पर आलिंगन और स्नेह प्रदर्शन किया गया। तब दुर्गा राधा को अपनी छाती से लगाकर मधुर वचन बोलीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्राह्मणानां मुखं राधे देवानां मुखमुख्यकम्। विप्रभुक्तं च यद् द्रव्यं प्राप्नुवन्त्येव देवताः।।-(122।23)
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