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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 86
धर्म ने कहा- वृन्दे! जो इच्छारहित, तर्कण करने के अयोग्य, ऐश्वर्यशाली, निर्गुण, निराकार और भक्तानुग्रहमूर्ति हैं; उन परमात्मा को पति बनाने के लिए लक्ष्मी और सरस्वती के अतिरिक्त दूसरी कौन स्त्री समर्थ हो सकती है? वैकुण्ठशायी चतुर्भुज भगवान की ये ही दो भार्याएँ हैं। गोलोक में भी जो द्विभुज, वंशी बजाने वाले, किशोर गोप-वेषधारी, परिपूर्णतम श्रीकृष्ण हैं; उनकी पत्नी स्वयं परात्परा महालक्ष्मी राधा हैं। वे परमब्रह्मा स्वरूपिणी राधा उन श्यामसुंदर की, जो परम आत्मबल से संपन्न, ऐश्वर्यशाली, शमपरायण और परम सौंदर्यशाली हैं, जिनका सुंदर शरीर करोड़ों कामदेवों के सौंदर्य की निन्दा करने वाला, अमूल्य रत्नाभरणों से विभूषित, सत्यस्वरूप और अविनाशी है तथा जो रमणीय पीताम्बर धारण करने वाले और संपूर्ण संपत्तियों के दाता हैं; सदा सेवा करती रहती हैं। वे श्रीकृष्ण द्विभुज और चतुर्भुज रूप से दो रूपों में विभक्त हैं। वे स्वयं चतुर्भुज-रूप से वैकुण्ठ में और द्विभुज-रूप से गोलोक में वास करते हैं। पचीस हजार युग बीतने के बाद इंद्र का पतन होता है, ऐसे चौदह इंद्रों का शासनकाल लोकों के विधाता ब्रह्मा का एक दिन होता है, उतनी ही बड़ी उनकी रात्रि होती है। ऐसे तीस दिन का एक मास और बारह मास का एक वर्ष होता है। ऐसे सौ वर्ष तक ब्रह्मा की आयु समझनी चाहिए। उन ब्रह्मा की आयु समाप्ति, जिनका एक निमेष होता है, सनक आदि महर्षि जिनकी जीवनपर्यन्त सेवा करते रहते हैं, परंतु करोड़ों-करोड़ों कल्पों में भी जो विभु साध्य नहीं होते। सहस्रमुखधारी शेषनाग अरबों-खरबों कल्पों तक जिनकी भक्तिपूर्वक रात-दिन सेवा तथा नाम जप करते रहते हैं; परंतु वे परात्पर, दुराराध्य, हितकारी भगवान साध्य नहीं होते। जो ब्रह्मा वेदों के उत्पादक, विधाता, फलदाता और संपूर्ण संपत्तियों के दाता हैं; वे प्रत्येक जन्म में उन ब्रह्मस्वरूप अविनाशी सनातनदेव का सदा अपने चारों मुखों द्वारा स्तवन करते रहते हैं; परंतु वेदों द्वारा अनिर्वचनीय, काल के काल तथा अन्तक के अंतक उन भगवान को सिद्ध नहीं कर पाते। वृन्दे! जो अपनी कला से रुद्ररूप धारण करके जगत का संहार करते हैं, पाँचों मुखों से उनकी स्तुति करते हैं, जिनसे बढ़कर भगवान को दूसरा कोई प्रिय नहीं है; उनके द्वारा जब भगवान साध्य नहीं होते, तब दूसरे की क्या बात है? वृन्दे! जो सर्वशक्तिस्वरूपा, दुर्गतिनाशिनी, परमब्रह्म-स्वरूपिणी, ईश्वरी, मूलप्रकृति, नारायणी, विष्णुमाया, वैष्णवी और सनातनी हैं, जिनकी माया से भ्रमणशील जगत सदा चक्कर काटता रहता है, वे दुर्गा भी जिन देव की भक्तिपूर्वक रात-दिन स्तुति करती रहती हैं। गजानन गणेश और छः मुखवाले स्वामीकार्तिक भी भक्तिसहित यथाशक्ति जिनका स्तवन करते हैं। जिनकी सर्वप्रथम पूजा होती है, जो संपूर्ण देवताओं के स्वामी और ज्ञानियों के गुरु के गुरु हैं, जिन गणेश से बढ़कर सिद्धेन्द्र, देवेन्द्र, योगीन्द्र और ज्ञानियों के गुरुओं में कोई विद्वान नहीं है, जो गणों के स्वामी और देवताओं के अधिपति हैं; वे भगवान गणेश जिनका ध्यान करते हैं। परमेश्वरी सरस्वती जिनका स्तवन करने में असमर्थ हैं। लक्ष्मी रात-दिन जिनके चरणकमल की सेवा करती हैं। जिनके कटाक्ष से सारा जगत परिपूर्णतम एवं कल्याणमय है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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