विषय सूची
ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 63-64
घर-घर में एक नंगी स्त्री मन्द मुस्कान के साथ नाचती दिखायी देती है, जिसके केश खुले हैं और आकार बड़ा विकट है। एक नंगी विधवा महाशूद्री, जिसकी नाक कटी हुई है और जो अत्यंत भयंकर है, मेरे अंगों में तेल लगा रही है। अतिशय प्रातःकाल में मैंने कुछ ऐसी विचित्र स्त्रियाँ देखीं, जो बुझे हुए अंगार (कोयले) लिए हुए थीं। उनके शरीर पर कोई वस्त्र नहीं था तथा वे संपूर्ण अंगों में भस्म लगाये हुए मुस्करा रही थीं। सपने में मुझे नृत्य-गीता से मनोहर लगने वाला विवाहोत्सव दिखायी दिया। कुछ ऐसे पुरुष भी दृष्टिगोचर हुए, जिनके कपड़े और केश भी लाल थे। एक नंगा पुरुष दीखा, जो देखने में भयंकर था, जो कभी रक्त वमन करता, कभी नाचता, कभी दौड़ता और कभी सो जाता था। उसके मुख पर सदा मुस्कराहट दिखाई देती थी। बन्धुओं! एक ही समय आकाश में चंद्रमा और सूर्य दोनों के मण्डल पर सर्वग्रास ग्रहण लगा दृष्टिगोचर हुआ है। पुरोहित जी! मैंने स्वप्न में उल्कापात, धूमकेतु, भूकम्प, राष्ट्र-विप्लव, झंझावत और महान उत्पाद देखा है। वायु के वेग से वृक्ष झोंके खा रहे थे। उनकी डालियाँ टूट-टूटकर गिर रही थीं। पर्वत भी भूमि पर ढहे दिखाई देते थे। घर-घर में ऊँचे कद का एक नंगा पुरुष नाच रहा था, जिसका सिर कटा हुआ था। उस भयानक पुरुष के हाथ में नरमुण्डों की माला दिखाई देती थी। सारे आश्रम जलकर अंगार के भस्म से भर गये थे और सब लोग चारों ओर हाहाकर करते दिखायी देते थे। नारद! यों कहकर राजा कंस सभा में चुप हो गया। वह स्वप्न सुनकर सब भाई-बन्धु सिर नीचा किए लंबी साँस खींचने लगे। अपने यजमान कंस के शीघ्र होने वाले विनाश को जानकर पुरोहित सत्यक तत्काल अचेत से हो गये। राजभवन की स्त्रियाँ तथा कंस के माता-पिता शोक से रोने लगे। सबको यह विश्वास हो गया कि अब शीघ्र ही कंस का विनाशकाल स्वयं उपस्थित होने वाला है। श्रीनारायण कहते हैं- मुने! बुद्धिमान पुरोहित सत्यक शुक्राचार्य के शिष्य थे। उन्होंने सब बातों पर विचार करके कंस के लिए हित की बात बतायी। सत्यक बोले- महाभाग! भय छोड़ो। मेरे रहते हुए भय किस बात का है? महेश्वर का यज्ञ करो, जो समस्त अरिष्टों का विनाश करने वाला है। इस महेश्वर-याग का नाम है- धनुर्यज्ञ, जिसमें बहुत सा अन्न खर्च होता है और बहुत दक्षिणा बाँटी जाती है। वह यज्ञ दुःस्वप्नों का विनाश तथा शत्रुभय का निवारण करने वाला है। उस यज्ञ से आध्यात्मिक, आधिदैविक और उत्कट आधिभौतिक- इन तीनों तरह के उत्पातों का खण्डन होता है। साथ ही वह ऐश्वर्य की वृद्धि करने वाला है। यज्ञ समाप्त होने पर समस्त संपदाओं के दाता भगवान शंकर प्रत्यक्ष दर्शन देते और ऐसा वर प्रदान करते हैं जिससे जरा और मृत्यु का निवारण हो जाता है। पूर्वकाल में महाबली बाण, नन्दी, परशुराम तथा बलवानों में श्रेष्ठ भल्ल ने इस यज्ञ का अनुष्ठान किया था। पहले भगवान शिव ने इस यज्ञ से संतुष्ट होकर यह दिव्य धनुष नन्दीश्वर को दिया था। धर्मात्मा नन्दीश्वर ने बाणासुर को दिया। फिर यज्ञ करके महासिद्ध हुए बाणासुर ने पुष्कर तीर्थ में यह धनुष परशुराम जी को अर्पित कर दिया। कृपानिधान परशुराम जी ने कृपापूर्वक अब तुमको यह धनुष दे दिया है। नरेश्वर! यह धनुष बड़ा ही कठोर (मजबूत) है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
अध्याय | विषय | पृष्ठ संख्या |