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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 24
प्रभो! जो बीत गया सो गया। यह सब काम-दोष से हुआ था। अब आप मेरा सारा अपराध क्षमा कर दें और बतावें इस समय मुझे क्या करना चाहिये। मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? कहाँ मेरा जन्म होगा? मैं तीनों लोकों में आपके सिवा किसी की भार्या नहीं होऊँगी। यों कहकर कन्दली का जीवात्मा मौन हो गया। इधर शोक से अचेत हो दुर्वासा मुनि मूर्च्छित हो गये। वे स्वात्माराम और महाज्ञानी होकर भी अपनी चेतना खो बैठे। चतुर पुरुषों के लिये नारी का वियोग सब शोकों से बढ़कर होता है। एक ही क्षण में उन्हें चेत हुआ और वे अपने प्राण त्याग देने को उद्यत हो गये। उन्होंने वहीं योगासन लगाकर वायुधारणा आरम्भ की। इतने ही में एक ब्राह्मण-बालक वहाँ आ पहुँचा। उसके हाथ में दण्ड और चक्र था। उसने लाल वस्त्र धारण किया था और ललाट में उत्तम चन्दन लगा रखा था। उसकी अंगकान्ति श्याम थी। वह ब्रह्मतेज से जाज्वल्यमान था। उसकी अवस्था बहुत छोटी थी; परंतु वह शान्त, ज्ञानवान तथा वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ जान पड़ता था। उसे देख दुर्वासा ने वेगपूर्वक प्रणाम किया, वहीं बैठाया और भक्तिभाव से उसका पूजन किया। ब्राह्मण वटुक ने मुने को शुभाशीर्वाद दे वार्तालाप आरम्भ किया। उसके दर्शन और आशीर्वाद से मुनि का सारा दुःख दूर हो गया। वह नीतिविशारद विचक्षण बालक क्षणभर चुप रहकर अमृतमयी वाणी में बोला। शिशु ने कहा– सर्वज्ञ विप्र! आप गुरुमन्त्र के प्रसाद से सब कुछ जानते हैं; फिर भी शोक से कातर हो रहे हैं; अतः मैं पूछता हूँ, इसका यथार्थ रहस्य क्या है? ब्राह्मणों का धर्म तप है। तपस्या से तीनों लोकों को वश में किया जा सकता है। मुने! इस समय अपने धर्म–तपस्या को छोड़कर आप क्या करने जा रहे हो? त्रिभुवन में कौन किसकी पत्नी है और कौन किसका पति? भगवान श्रीहरि मूर्खों को बहलाने के लिये माया से इन सम्बन्धों की सृष्टि करते हैं। यह कन्दली आपकी मिथ्या पत्नी थी; इसलिये अभी क्षणभर में चली गयी। जो सत्य है, वह कभी तिरोहित नहीं होता। मिथ्या वही है, जिसकी चिरकाल तक स्थिति न रहे। वसुदेव-पुत्री एकानंशा, जो श्रीकृष्ण की बहिन है, पार्वती के अंश से उत्पन्न हुई है। वह सुशीला और चिरजीविनी है। वह सुन्दरी प्रत्येक कल्प में आपकी पत्नी होगी; अतः आप कुछ दिनों तक प्रसन्नतापूर्वक तपस्या में मन लगाइये। कन्दली इस भूतल पर ‘कन्दली’ जाति होगी। वह कल्पान्तर में शुभदा, फलदायिनी, कमनीया, एक संतान देने वाली, परम दुर्लभा तथा शान्तरूपा स्त्री होकर आपकी पत्नी होगी। जो अत्यन्त उच्छृंखल हो, उसका दमन करना उचित ही है; ऐसा श्रुति में कहा गया है (अतः उसके भस्म होने से आपको शाक नहीं करना चाहिये)। यों कहकर ब्राह्मणरूपधारी श्रीहरि ब्रह्मर्षि दुर्वासा को ज्ञान दे शीघ्र ही वहाँ से अन्तर्धान हो गये। तब मुनि ने सारा भ्रम छोड़कर तपस्या में मन लगाया। कन्दली इस धरातल पर कन्दली जाति हो गयी। मुने! दैत्य साहसिक तालवन में जाकर गदहा हो गया और तिलोत्तमा यथासमय बाणासुर की पुत्री हुई। फिर श्रीहरि के चक्र से मारा जाकर अपने प्राणों का परित्याग करके दैत्याराज साहसिक ने गोविन्द के उस परम अभीष्ट चरणारविन्द को प्राप्त कर लिया जो मुनि के लिये भी परम दुर्लभ है। तिलोत्तमा भी बाण-पुत्री उषा के रूप में जन्म ले श्रीकृष्ण-पौत्र अनिरुद्ध के आलिंगन से सफल मनोरथ होकर समयानुसार पुनः अपने निवास स्थान– स्वर्गलोक को चली गयी। इस प्रकार श्रीकृष्ण के इस उत्तम लीलोपाख्यान को पिता से सुनकर मैंने तुमसे कहा है। यह पद-पद में सुन्दर है। अब और क्या सुनना चाहते हो? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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