आत्मा का पृथक शरीर कहाँ होता है? वे स्वेच्छामय परब्रह्म परमात्मा भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये ही दिव्य शरीर धारण करते हैं। वे सनातन देव सर्वत्र हैं, सर्वज्ञ हैं और सबको देखते हैं। ‘विष्’ धातु व्याप्तिवाचक है और ‘णु’ का अर्थ सर्वत्र है। वे सर्वात्मा श्रीहरि सर्वत्र व्यापक हैं; इसलिये विष्णु कहे गये हैं। कोई अपवित्र हो या पवित्र अथवा किसी भी अवस्था में क्यों न हो, जो कमलनयन भगवान विष्णु का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर सहित पूर्णतः पवित्र हो जाता है[1]।
ब्रह्मन! कर्म के आरम्भ, मध्य और अन्त में जो श्री विष्णु का स्मरण करता है, उसका वैदिक कर्म सांगोपांग पूर्ण हो जाता है[2]। जगत की सृष्टि करने वाला मैं विधाता, संहारकारी हर तथा कर्मों के साक्षी धर्म– ये सब जिनकी आज्ञा के परिपालक हैं, जिनके भय और आज्ञा से काल समस्त लोकों का संहार करता है, यम पापियों को दण्ड देता है और मृत्यु सबको अपने अधिकार में कर लेती है। सर्वेश्वरी, सर्वाद्या और सर्वजननी प्रकृति भी जिनके सामने भयभीत रहती तथा जिनकी आज्ञा का पालन करती है। वे भगवान विष्णु ही सबके आत्मा और सर्वेश्वर हैं।
महेश्वर बोले– ब्रह्मन! ब्रह्मा जी के जो सुप्रसिद्ध पुत्र हैं, उनमें से किसके वंश में तुम्हारा जन्म हुआ है? वेदों का अध्ययन करके तुमने कौन-सा सार तत्त्व जाना है? विप्रवर! तुम किस मुनीन्द्र के शिष्य हो? और तुम्हारा नाम क्या है? तुम अभी बालक हो तो भी सूर्य से बढ़कर तेज धारण करते हो। तुम अपने तेज से देवताओं को भी तिरस्कृत करते हो; परंतु सबके हृदय में अन्तर्यामी आत्मारूप से विराजमान हमारे स्वामी सर्वेश्वर परमात्मा विष्णु को नहीं जानते हो, यह आश्चर्य की बात है।
उन परमात्मा के ही त्याग देने पर देहधारियों का यह शरीर गिर जाता है और सभी सूक्ष्म इन्द्रियवर्ग एवं प्राण उसके पीछे उसी तरह निकल जाते हैं, जैसे राजा के पीछे उसके सेवक जाते हैं। जीव उन्हीं का प्रतिबिम्ब है। वह तथा मन, ज्ञान, चेतना, प्राण, इन्द्रियवर्ग, बुद्धि, मेधा, धृति, स्मृति, निद्रा, दया, तन्द्रा, क्षुधा, तृष्णा, पुष्टि, श्रद्धा, संतुष्टि, इच्छा, क्षमा और लज्जा आदि भाव उन्हीं के अनुगामी माने गये हैं। वे परमात्मा जब जाने को उद्यत होते हैं, तब उनकी शक्ति आगे-आगे जाती है। उपर्युक्त सभी भाव तथा शक्ति उन्हीं परमात्मा के आज्ञापालक हैं।