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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 8
तिथि के अन्त में श्रीहरि का स्मरण तथा देवताओं का पूजन करके की हुई पारणा पवित्र मानी गयी है। वह मनुष्यों के समस्त पापों का नाश करने वाली होती है। सम्पूर्ण उपवास-व्रतों में दिन को ही पारणा करने का विधान है। यह उपवास-व्रत का अंगभूत, अभीष्ट फलदायक तथा शुद्धि का कारण है। पारणा न करने पर फल में कमी आती है। रोहिणी व्रत के सिवा दूसरे किसी व्रत में रात को पारणा नहीं करनी चाहिये। महारात्रि को छोड़कर दूसरी रात्रि में पारणा की जा सकती है। ब्राह्मणों और देवताओं की पूजा करके पूर्वाह्णकाल में पारणा उत्तम मानी गयी है। रोहिणी-व्रत सबको सम्मत है। उसका अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। यदि बुध अथवा सोमवार से युक्त जयन्ती मिल जाए तो उसमें व्रत करके व्रती पुरुष गर्भ में वास नहीं करता है। यदि उदयकाल में किंचितमात्र कुछ अष्टमी हो और सम्पूर्ण दिन-रात में नवमी हो तथा बुध, सोम एवं रोहिणी नक्षत्र का योग प्राप्त हो तो वह सबसे उत्तम व्रत का समय है। सैकड़ों वर्षों में भी ऐसा योग मिले या न मिले, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे उत्तम व्रत का अनुष्ठान करके व्रती पुरुष अपनी करोड़ों पीढ़ियों का उद्धार कर लेता है। जो सम्पत्तियों से रहित भक्त मनुष्य हैं, वे व्रतसम्बन्धी उत्सव के बिना भी यदि केवल उपवास मात्र कर लें तो भगवान माधव उन पर उतने से ही प्रसन्न हो जाते हैं। भक्तिभाव से भाँति-भाँति के उपचार चढ़ाने तथा रात में जागरण करने से दैत्यशत्रु श्रीहरि जयन्ती-व्रत का फल प्रदान करते हैं। जो अष्टमी व्रत के उत्सव में धन का उपयोग करने में कंजूसी नहीं करता, उसे उत्तम फल की प्राप्ति होती है। जो कंजूसी करता है, वह उसके अनुरूप ही फल पाता है। विद्वान पुरुष अष्टमी और रोहिणी में पारणा न करे; अन्यथा वह पारणा पूर्वकृत पुण्यों को तथा उपवास से प्राप्त होने वाले फल को भी नष्ट कर देती है, तिथि आठ गुने फल का नाश करती है और नक्षत्र चौगुने फल का। अतः प्रयत्नपूर्वक तिथि नक्षत्र के अन्त में पारणा करे। यदि महानिशा प्राप्त होने पर तिथि और नक्षत्र का अन्त होता हो तो व्रती पुरुष को तीसरे दिन पारणा करनी चाहिये। आदि और अन्त के चार-चार दण्ड को छोड़कर बीच की तीन पहरवाली रात्रि को त्रियामा रजनी कहते हैं। उस रजनी के आदि और अन्त में दो संध्याएँ होती हैं। जिनमें से एक को दिनादि या प्रातःसंध्या कहते हैं और दूसरी को दिनान्त या सायंसंध्या। शुद्धा जन्माष्टमी को जागरणपूर्वक व्रत का अनुष्ठान करके मनुष्य सौ जन्मों के किए पापों से छुटकारा पा जाता है। इसमें संशय नहीं है। जो मनुष्य शुद्धा जन्माष्टमी में केवल उपवासमात्र करके रह जाता है, व्रतोत्सव या जागरण नहीं करता, वह अश्वमेध-यज्ञ के फल का भागी होता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के दिन भोजन करने वाले नराधम घोर पापों और उनके भयानक फलों के भागी होते हैं। जो उपवास करने में असमर्थ हो, वह एक ब्राह्मण को भोजन करावे अथवा उतना धन दे दे, जितने से वह दो बार भोजन कर ले। अथवा प्राणायाम-मन्त्रपूर्वक एक सहस्र गायत्री का जप करे। मनुष्य उस व्रत में बारह हजार मन्त्रों का यथार्थरूप से जप करे तो और उत्तम है। वत्स नारद! मैंने धर्मदेव के मुख से जो कुछ सुना था, वह सब तुम्हें कह सुनाया। व्रत, उपवास और पूजा को जो कुछ विधान है और उसके न करने पर जो कुछ दोष होता है; वह सब यहाँ बता दिया गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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