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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्णजन्मखण्ड: अध्याय 1-3
उसके ऊपर ऋषि, मुनि, सिद्ध तथा सम्पूर्ण देवता संतुष्ट रहते हैं। वह भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से सर्वत्र सुखी एवं निःशंक रहता है। श्रीकृष्ण की कथा में सदा तुम्हारा आत्यन्तिक अनुराग है। क्यों न हो? पिता का स्वभाव पुत्र में अवश्य ही प्रकट होता है। विप्रवर! तुम्हारी यह प्रशंसा क्या है? तुम्हारा जन्म ब्रह्मा जी के मानस से हुआ है। जिसका जिस कुल में जन्म होता है, उसकी बुद्धि उसके अनुसार ही होती है। तुम्हारे पिता श्रीकृष्ण के चरणारविन्दों की सेवा में ही विधाता के पद पर प्रतिष्ठित हैं। वे नित्य-निरन्तर नवधा भक्ति का पालन करते हैं। जिसका श्रीकृष्ण की कथा में अनुराग हो, कथा सुनकर जिसके नेत्रों में आँसू छलक आते हों और शरीर में रोमांच छा जाता हो तथा मन उसी में डूब जाता हो; उसी को विद्वान पुरुषों ने सच्चा भक्त कहा है। जो मन, वाणी और शरीर के स्त्री-पुत्र आदि सबको श्रीहरि का ही स्वरूप समझता है, उसे विद्वानों ने भक्त कहा है। जिसकी सब जीवों पर दया है तथा जो सम्पूर्ण जगत को श्रीकृष्ण जानता है, वह महाज्ञानी पुरुष ही वैष्णव भक्त माना गया है। जो निर्जन स्थान में अथवा तीर्थों के सम्पर्क में रहकर आसक्तिशून्य हो बड़े आनन्द के साथ श्रीहरि के चरणारविन्द का चिन्तन करते हैं, वे वैष्णव माने गये हैं। जो सदा भगवान के नाम और गुण का गान करते, मन्त्र जपते तथा कथा-वार्ता कहते-सुनते हैं, वे अत्यन्त वैष्णव हैं। मीठी वस्तुएँ पाकर श्रीहरि को प्रसन्नतापूर्वक भोग लगाने के लिये जिसका मन हर्ष से खिल उठता है, वह ज्ञानियों में श्रेष्ठ भक्त है। जिसका मन सोते, जागते, दिन-रात श्रीहरि के चरणारविन्द में ही लगा रहता है और जो बाह्य शरीर से पूर्व कर्मों का फल भोगता है, वह वैष्णव है। तीर्थ सदा वैष्णवों के दर्शन और स्पर्श की अभिलाषा करते हैं; क्योंकि उनके संग से उन तीर्थों के वे सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, जो उन्हें पापियों के संसर्ग से मिले होते हैं। जितनी देर में गाय दुही जाती है, उतनी देर भी जहाँ वैष्णव पुरुष ठहर जाता है, वहाँ की धरती पर उतने समय के लिये सम्पूर्ण तीर्थ निवास करते हैं। वहाँ मरा हुआ पापी मनुष्य निश्चय ही पापमुक्त हो श्रीहरि के धाम में वैसे ही चला जाता है, जैसे अन्तकाल में श्रीकृष्ण की स्मृति होने पर अथवा ज्ञानगंगा में अवगाहन करने पर मनुष्य परम पद को प्राप्त हो जाता है। तथा जैसे तुलसीवन में, गोशाला में, श्रीकृष्ण-मन्दिर में, वृन्दावन में, हरिद्वार में एवं अन्य तीर्थों में भी मृत्यु होने पर मनुष्य को परम धाम की प्राप्ति होती है। तीर्थों में स्नान करने या गोता लगाने से पापियों के पाप धुल जाते हैं। फिर उन तीर्थों के पाप वैष्णवों को छूकर बहने वाली वायु के स्पर्श से नष्ट होते हैं। जो भगवान हृषीकेश की और उनके पुण्यात्मा भक्त की निन्दा करते हैं, उनके सौ जन्मों का पुण्य निश्चय ही नष्ट हो जाता है। वैष्णवों के स्पर्शमात्र से पातकी मनुष्य पातक से मुक्त हो जाता है। पातकी के स्पर्श से उस भक्त में जो पाप आता है, उसका नाश उसके अन्तःकरण में बैठे हुए भगवान मधुसूदन अवश्य कर देते हैं। ब्रह्मन! इस प्रकार मैंने भगवान विष्णु और वैष्णव भक्त के गुणों का वर्णन किया है। अब मैं तुम्हें श्रीहरि के जन्म का प्रसंग सुनाता हूँ, सुनो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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