ब्रह्म वैवर्त पुराण
गणपतिखण्ड: अध्याय 7
शम्भु ने चिरकाल तक मेरा ध्यान करते हुए तपस्या की है, इसलिये तप की फलस्वरूपा माया को मैंने उन्हें प्रदान किया है। मायारूपा पार्वती का यह व्रत लोक शिक्षा के लिये ही है, अपने लिये नहीं है; क्योंकि त्रिलोकी में व्रतों और तपस्याओं का फल देने वाली तो वे स्वयं ही हैं। इनकी माया से सभी प्राणी मोहित हैं। फिर प्रत्येक कल्प में पुन-पुनः इनके स्तवन, व्रत और व्रत-फल की साधना से क्या लाभ? देवताओं में श्रेष्ठ जो ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर हैं, वे मेरे ही अंश हैं तथा जीवधारी प्राणी और देवता आदि मेरी ही कलाएँ तथा कलांशरूप हैं। जैसे कुम्हार मिट्टी के बिना घट का निर्माण नहीं कर सकता तथा सोनार स्वर्ण के बिना कुण्डल बनाने में असमर्थ है, उसी तरह मैं भी शक्ति के बिना अपनी सृष्टि की रचना करने में असमर्थ हूँ। अतः सृष्टि के सृजन में शक्ति की ही प्रधानता है– यह सभी दर्शनशास्त्रों को मान्य है। मैं समस्त देहधारियों का आत्मा, निर्लेप, अदृश्य और साक्षी हूँ। प्रकृति से उत्पन्न सभी पांचभौतिक शरीर नश्वर हैं, परंतु सूर्य के समान प्रकाशमान शरीर वाला मैं नित्य हूँ। जगत में प्रकृति सबकी आधारस्वरूपा है और मैं सबका आत्मा हूँ। वेद में ऐसा निरूपण किया गया है कि मैं आत्मा हूँ, ब्रह्मा मन हैं, महेश्वर ज्ञानरूप हैं, स्वयं विष्णु पंचप्राण हैं, ऐश्वर्यशालिनी प्रकृति बुद्धि है, मेधा, निद्रा आदि ये सभी प्रकृति की कलाएँ हैं और वह प्रकृति ही ये शैलराजकन्या पार्वती हैं। मैं सनातनदेव ही वैकुण्ठ का अधिपति हूँ और मैं ही गोलोक का भी स्वामी हूँ। वहाँ गोलोक में दो भुजाधारी होकर गोप और गोपियों से घिरा रहता हूँ तथा यहाँ वैकुण्ठ में मैं देवेश्वर और लक्ष्मीपति के रूप में चार भुजाएँ धारण करता हूँ और मेरे पार्षद मुझे घेरे रहते हैं। वैकुण्ठ से ऊपर पचास करोड़ योजन की दूरी पर स्थित गोलोक में मेरा निवास-स्थान है, वहाँ मैं ‘गोपीनाथ’ रूप से रहता हूँ। उन्हीं द्विभुजधारी गोपीनाथ की व्रत द्वारा आराधना की जाती है और वे ही उसका फल प्रदान करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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