ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 56
सौ लाख जप करने पर यह कवच सिद्ध हो जाता है। यदि किसी को यह कवच सिद्ध हो जाये तो वह आग से जलता नहीं है। दुर्गे! पूर्वकाल में इस कवच को धारण करने से ही राजा दुर्योधन ने जल और अग्नि का स्तम्भन करने में निश्चितरूप से दक्षता प्राप्त की थी। मैंने पहले पुष्कर तीर्थ में सूर्यग्रहण के अवसर पर सनत्कुमार को इस कवच का उपदेश दिया था। सनत्कुमार ने मेरु पर्वत पर सान्दीपनि को यह कवच प्रदान किया। सान्दीपनि ने बलराम जी को और बलराम जी ने दुर्योधन को इसका उपदेश दिया। इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है।[1] जो राधा मन्त्र का उपासक होकर प्रतिदिन इस कवच का भक्तिभाव से पाठ करता है, वह विष्णुतुल्य तेजस्वी होता है तथा राजसूय-यज्ञ का फल पाता है। सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान, सब प्रकार का दान, सम्पूर्ण व्रतों में उपवास, पृथ्वी की परिक्रमा, समस्त यज्ञों की दीक्षा का ग्रहण, सदैव सत्य की रक्षा, नित्यप्रति श्रीकृष्ण की सेवा, श्रीकृष्ण-नैवेद्य का भक्षण तथा चारों वेदों का पाठ करने पर मनुष्य जिस फल को पाता है, उसे निश्चय ही वह इस कवच के पाठ से पा लेता है। राजद्वार पर, श्मशान भूमि में, सिंहों और व्याघ्रों से भरे हुए वन में, दावानल में, विशेष संकट के अवसर पर, डाकुओं और चोरों से भय प्राप्त होने पर, जेल जाने पर, विपत्ति में पड़ जाने पर, भयंकर एवं अटूट बन्धन में बँधने पर तथा रोगों से आक्रान्त होने पर यदि मनुष्य इस कवच को धारण कर ले तो निश्चय ही वह समस्त दुःखों से छूट जाता है। दुर्गे! महेश्वरि! यह तुम्हारा ही कवच तुमसे कहा है। तुम्हीं सर्वरूपा माया हो और छल से इस विषय में मुझसे पूछ रही हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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ऊँ राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च। कृष्णेनोपासितो मन्त्रः कल्पवृक्ष शिरोऽवतु।।
ऊँ ह्रीं श्रीं राधिका ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च। कपालं नेत्रयुग्मं च श्रोत्रयुग्मं सदावतु।।
ऊँ रां ह्रीं श्रीं राधिकेति ङेऽन्तं वह्निजायान्तमेव च। मस्तकं केशसंघांश्च मन्त्रराजः सदावतु।।
ऊँ रां राधेति चतुर्थ्यन्तं वह्निजायान्तमेव च। सर्वसिद्धिप्रदः पातु कपोलं नासिकां मुखम्।।
क्लीं श्रीं कृष्णप्रिया ङेऽन्तं कण्ठं पातु नमोऽन्तकम्। ऊँ रां रासेश्वरी ङेऽन्तं स्कन्धं पातु नमोऽन्तकम्।।
ऊँ रां रासविलासिन्यै स्वाहा पृष्ठं सदावतु। वृन्दावनविलासिन्यै स्वाहा वक्षः सदावतु।।
तुलसीवनवासिन्यै स्वाहा पातु नितम्बकम्। कृष्णप्राणाधिका ङेऽन्तं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।।
पादयुग्मं च सर्वांङ्ग संततं पातु सर्वतः। राधा रक्षतु प्राच्यां च वह्नौ कृष्णप्रियावतु।।
दक्षे रासेश्वरी पातु गोपीशा नैर्ऋतेऽवतु। पश्चिमे निर्गुणा पातु वायव्ये कृष्णपूजिता।।
उत्तरे संततं पातु मूलप्रकृतिरीश्वरी। सर्वेश्वरी सदैशान्यां पातु मां सर्वपूजिता।।
जले स्थले चान्तरिक्षे स्वप्ने जागरणे तथा। महाविष्णोश्च जननी सर्वतः पातु संततम्।।
कवचं कथितं दुर्गे श्रीजगन्मङगलं परम्। यस्मै कस्मै न दातव्यं गूढाद् गूढतरं परम्।।
तव स्नेहान्मयाऽऽख्यातं प्रवक्तव्यं न कस्यचित्। गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालंकारचन्दनैः।।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ धृत्वा विष्णुसमो भवेत्। शतलक्षजपेनैव सिद्धं च कवचं भवेत्।।
यदि स्यात् सिद्धकवचो न दग्धो वह्निना भवेत्। एतस्मात् कवचाद् दुर्गे राजा दुर्योधनः पुरा।।
विशारदो जलस्तम्भे वह्निस्तम्भे च निश्चितम्। मया सनत्कुमाराय पुरा दत्तं च पुष्करे।।
सूर्यपर्वणि मेरौ च स सान्दीपनये ददौ। बलाय तेन दत्तं च ददौ दुर्योधनाय सः।।
कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः।।- (प्रकृतिखण्ड 56। 32-49)
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