ब्रह्म वैवर्त पुराण
प्रकृतिखण्ड : अध्याय 17
तुलसी ने कहा– प्राणबन्धो! नाथ! आप मेरे प्राणों के अधिष्ठाता देव हैं। आप विराजिये। क्षण भर मेरे जीवन की रक्षा कीजिये। मैं अपने नेत्रों से कुछ समय तक तो आदर पूर्वक आपके दर्शन कर लूँ। मेरे प्राण फड़फड़ा रहे हैं। आज मैंने रात के अन्तिम क्षण में एक बुरा स्वप्न देखा है। शंखचूड़ बोला- प्रिये! कर्म-भोग का सारा निबन्ध काल के सूत्रों में बँधा है। शुभ, हर्ष, सुख, दुःख, भय, शोक और मंगल-सभी काल के अधीन हैं। समयानुसार वृक्ष उगते, उन पर शाखाएँ फैलतीं, पुष्प लगते और क्रमशः वे फल से लद जाते हैं। फिर काल ही उन फलों को पकाता भी है। बाद में काल के प्रभाव से फूल-फलकर वे सम्पूर्ण वृक्ष नष्ट भी हो जाते हैं। सुन्दरि! समय पर विश्व उत्पन्न होता है और समयानुसार उसकी अन्तिम घड़ी आ जाती है। काल की महिमा स्वीकार करके ब्रह्मा सृष्टि करते हैं और विष्णु पालन में तत्पर रहते हैं। रुद्र का संहार-कार्य भी काल के संकेत पर ही निर्भर है। सभी क्रमशः कालानुसार अपने व्यापार में नियुक्त होते हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि प्रधान देवताओं के भी अधीश्वर हैं- परमात्मा श्रीकृष्ण। जो प्रकृति को उत्पन्न करके विश्व में रहने वाले सम्पूर्ण चराचर पदार्थों को रचते हैं। उन्हें सर्वेश, सर्वरूप, सर्वात्मा और परमेश्वर कहते हैं। वे जन से जन की सृष्टि करते, जन से जन की रक्षा करते तथा जन से जन का संहार करते हैं, उन्हीं त्रिगुणातीत परम प्रभु राधावल्लभ की तुम उपासना करो। उन्हीं की आज्ञा से सदा शीघ्रगामी पवन प्रवाहित होते हैं, सूर्य आकाश में तपते हैं, इन्द्र समयानुसार वर्षा करते हैं, मृत्यु प्राणियों में विचरती है, अग्नि यथावसर दाह उत्पन्न करते हैं तथा शीतल चन्द्रमा भयभीत की भाँति आकाश मण्डल में चक्कर लगाते हैं, प्रिये! जो मृत्यु की मृत्यु, काल के काल, यमराज के श्रेष्ठ शासक, ब्रह्मा के स्वामी, माता-की-माता, जगत की जननी तथा संहार करने वाले के भी संहारकर्ता हैं, उन परम प्रभु भगवान श्रीकृष्ण की शरण में तुम जाओ। प्रिये! यहाँ कौन किनका बन्धु है! जो सबके बन्धु हैं, उन्हीं की तुम उपासना करो। ब्रह्मा ने हम दोनों को एक रस्सी में बाँध दिया। इससे तुम्हारे साथ जगत के व्यवहार में मैं फँस गया। पुनः विलग हो जाना विधि की इच्छा पर ही निर्भर है। शोक एवं विपत्ति सामने आने पर अज्ञानी व्यक्ति घबराता है न कि पण्डित पुरुष कालचक्र के क्रम से सुख और दुःख एक के बाद एक आते-जाते ही रहते हैं। अब तुम्हें निश्चय ही वे सर्वेश भगवान नारायण साक्षात पति रूप में प्राप्त होंगे, जिनके लिये बदरी-आश्रम में रहकर तुम तपस्या कर चुकी हो। तपस्या तथा ब्रह्मा के वर-प्रदान से तुम्हें पाने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ था। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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