श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
रास में व्रजबालाओं की वंशीस्वर से आकर्षित कर अंत में उपेक्षा वचन कहे। भीतर अपेक्षा, बाहर उपेक्षा। वचन भंगिमा द्वारा कैसा पाण्डित्य दिखाया। ऐसा चतुर चूड़ामणि जगत् में दूसरा है? मन को मत्त कर देने वाली आँखों की ऐसी चाहनी (दृष्टि) ही भला और किसके पास है? प्रेमिकाओं के कुटिल कटाक्ष से ऐसा प्रेमविवश ही और कौन होता है? उनके एक और सौन्दर्य की बात बताता हूँ, साथियों सुनो! वह सौन्दर्य भी बड़ा चमत्कारपूर्ण! श्रीमती राधारानी का वदन-चंद्रमा देखकर श्यामसुन्दर का लावण्यसुधासागर उच्छलित हो उठा। उस लावण्यसुधासागर की तरंगों से उन्होंने व्रजसुंदरियों के नेत्र चंचल और सतृष्ण (पिपासातुर) कर डाले यह चित्र कितना सुन्दर कितना प्रेममय, कैसा प्राणातम है! ऐसे नवकिशोर श्यामसुन्दर की सेवा न कर हमलोग और किसकी सेवा करेंगे? साथियों! श्यामसुन्दर के गुण की और भी बात बताता हूँ, सुनो! उनकी मोहन वंशी के स्वर के प्रति आकृष्ट होकर स्वर्गलक्ष्मियाँ भी उत्फुल्ल नेत्रकमलों से उनकी अर्चना किया करती हैं। ये अखिल कमलाओं के चित्तहारी हैं। श्रीराधा के मदनमोहन निखिल विश्वब्रह्माण्डों के समस्त कामों के बीज या अंकुर स्वरूप हैं। चतुर्व्यूहों के अंतर्गत प्रद्युम्न नाम के अप्राकृत काम और उनके अपने स्वरूप कामगण इनकी शाखायें हैं। फिर अनन्त ब्रह्माण्डों में उन सबके अंश-लेशाभास स्वरूप जितने भी कामगण हैं, वे इनके पत्र (पत्ते) हैं। ये ही सबके बीज हैं। वृन्दावन ये अभिनव कंदर्प प्राकृत-अप्राकृत कन्दर्पों के निदान स्वरूप हैं।” श्रीमद्भावगत में रासलीला में रासवक्ताश्रीपाद शुकदेव मुनि ने श्रीकृष्ण को ‘साक्षान्मन्मथमन्मथः’ कहा है (10/32/2), जिसकी व्याख्या में श्रीवैष्णवतोषणी टीका में लिखा है- “नानावासुदेवादिचतुर्व्यूहेषु ये साक्षान्मन्मथाः स्वयं कामदेवाः न तु तदीयशक्त्यंशावेशि प्राकृत-मन्मथ-वदसाक्षादूपाः तेषामपि मन्मथः मन्मथत्वप्रकाशकः चक्षुषश्चक्षुरित्यादिवद्। येषां रूपगुण-विशेषाणामंशेन तत्प्रकाश-कोऽसौतानखिलान् एव प्रकाशयन्नित्यर्थः। अत एवास्य महामन्मथत्वेनैकाक्षरादि मंत्रध्यानानि च सन्ति। किञ्च तस्मिन् ध्यानेन्यक्कारत्वं मन्मथत्वव्यञ्जनार्थमेव ज्ञेयं मन्मथपदस्य यौगिकवृत्या तेषामपि क्षोभकादिरूपः सन्नित ध्वनिम्।” तात्पर्य यह है कि श्रीकृष्ण साक्षात् मन्मथः मन्मथत्व-प्रकाशकः चक्षुषश्चक्षुरित्यादिवद्। येषां रूपगुणविशेषाणामंशेन तत्प्रकाशकोऽसौतानखिलान् एव प्रकाशयन्नित्यर्थः। अत एवास्य महामन्मथत्वेनैकाक्षरादि मंत्रध्यानानि च सन्ति। किञ्च तस्मिन् ध्यानेनन्यक्कारत्वं मन्मथत्वव्यञ्जनार्थमेव ज्ञेयं मन्मथपदस्य यौगिकवृत्या तेषामपि क्षोभकादिरूपः सन्नित ध्वनितम्।” तात्पर्य यह कि श्रीकृष्ण साक्षात् मन्मथ- मन्मथ, अर्थात् मूतिमान् मन्मथ के भी मन्मथ हैं। वासुदेव आदि (वासुदेव, संकर्षण, प्रद्मम्न, अनिरुद्ध) चतुर्व्यूहों में प्रद्मम्न ही अप्राकृत मन्मथ या मदन हैं। द्वारकाधाम के चतुर्व्यूहों के अन्तर्गत जो प्रद्मम्न हैं, वे अन्यान्य धामों के अन्तर्गत प्रद्मम्नों के मूल होने से वे ही साक्षात् अप्राकृत मन्मथ हैं। वृजेन्द्रनन्दन श्रीकृष्ण इन मन्मथ के ङी मूल आश्रय हेतुक (कारण) हैं। जैसे दृष्टिशक्ति के मूल आश्रस को ‘चक्षु का चक्षु:’) कहा जाता हैं, वैसे श्रीकृष्ण को मन्मथ का मन्मथमन्मथ कहा जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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