श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘व्रजकिशोर श्रीकृष्ण की जगन्मोहिनी मूर्ति के दर्शन के लिए मेरे नयनों की बलवती आकांक्षा है। वह श्रीमूर्ति ईषत् नम्र (कुटिल) कृष्णवर्ण भौंहों से शोभित है, प्रेमीजन के प्रति अनुराग से चञ्चल नेत्रों वाली है; मृदु जल्पना से आर्द्र है; अधरामृत से ईषत् रक्तवर्ण है, अव्यक्त मधुर अस्फुट वंशीध्वनि से मत्त (हर्षित) है।’ उसी श्रीमूर्ति के दर्शन कर बोले- यह अति विचत्र, अति अद्भुत है। और भी प्रार्थना की थी[1]-
‘नलिनाक्ष श्रीकृष्ण के नेत्र प्रफुल्लित है, नित्य नूतन सौन्दर्य से शोभित हैं, प्रति मुहूर्त शोभा-सौन्दर्य से उच्छलित हैं इसलिए और भी अधिक मधुरूप से प्रतिभात हैं। इनके नयन निमेष-निमेष ललित और श्रीराधा के प्रणय से खचित, शोभा के आश्रय हैं। प्राणनाथ किशोर श्रीकृष्ण हम लोगों के हृदय में सुधारस-तरंगिणी के रूप में प्रवाहित हों।’ श्रीकृष्ण के उन्हीं नयनारविन्दों के अब दर्शन किए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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