श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
श्रील भट्ट गोस्वामिपाद कहते हैं- इस श्लोक में श्रीलीलाशुक श्रीकृष्ण का आगमन विशेषरूप से वर्णन कर रहे हैं। अब तक जो परोक्ष में थे, वे ही अब प्रत्यक्षीभूत हो गए। वे अनन्यबन्धु हैं, अर्थात् उन्हें छोड़ मेरा और बन्धु नहीं। फिर वे हैं नयनबन्धु अर्थात् नेत्रों का सन्ताप हरने वाले। अथवा जो नयनों का बन्धन करते हैं या स्वयं के विषय में प्रवणतायुक्त करते है या स्वयं के विषय में प्रवणतायुक्त करते हैं, वे मुझे सुख देने के लिए आ रहे हैं। अहो, मेरी कैसी अपूर्व भाग्यपरंपरा है। और कैसे हैं वे ? “आनन्दकन्दलित केलिकटाक्षलक्ष्मीः” आनन्द द्वारा मुकुलित जो विलासकटाक्ष है उसकी शोभा, अर्थात् इधर-उधर दृष्टिसञ्चालन और निमिषपात (पलक झपकाना) के कारण जो विचित्र नयन विलास है उससे अपूर्व सौन्दर्य प्रकट हो रहा है। केवल रूपलीला का ही प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं, शब्दमाधुर्य की श्रवण-प्रत्यक्षता भी बता रहे हैं- “विलास मुरलीनिनदामृतेन सिञ्चन्नुदञ्चतमिदं मम कर्णयुग्मम” जो विलासयुक्त मुरली है, उसके निनाद-अमृत से मेरे श्रवणोत्सुक या उन्नमित कर्णों को सींचते आ रहे हैं।।79।। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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