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सुबोधनी ततोऽप्यत्यानन्देनाभिनयन्नाह- तेजोरूपाणां ब्रह्मणां व्यापकानां यो राशिः समूहस्ततोऽपि महः कान्तिर्यस्य तस्मै नमो नमः। अस्तत्तत् समाधानदुर्घट- शंकापि न। तदेव व्यनक्ति- धेनुपालदयितानां स्तनतटी- संबंधेन धन्यं यत्कुंकुमं तेन सनाथा शवला कान्तिर्यस्य। तथा, वेणुगीतस्य या गतयः स्वरग्राममूर्छनादिकास्ता सामाजदिस्रष्ट्रे। ब्रह्मादिसृष्ट्यतीतगानप्रवीणायेत्यर्थः।।77।।
सारंगरंगदा अथ तत्कुचकुंकुममनोज्ञ- कान्तिमपूर्वं वेणुं वादयन्तं तं विलोक्य सविस्मयमाह- अस्मै नमो नमः। आदरे वीप्सा। कीदे- तासां स्तनसम्बंधित्वाद्धन्यं यत्कुंकुमं तेन सनाथा शबलात्युत्फुल्ला कान्तिर्यस्य। सहजकुंकुमगन्धवर्णानां तासां कुचस्थत्वात् सौरभ्यकान्त्यतिशयप्राप्ता तस्य धन्यत्वम्। विरहे म्लानायाः कान्तेश्च तदालिंगनादिप्राप्त्यानन्दोत् फुल्लत्वात् सनाथत्वम्। तथा, विधातृसृष्ट्यतिरिक्तानां वेणुगीतगतीनां मूलवेध से प्रथमस्रष्ट्रे। तदुक्तम्- “सवनश”[1] इत्यादौ “कश्मलं ययुः” (तत्रैव) इति। कथमस्य तत् स्रष्टृत्वमिति विमृशसन् पूर्ववत्तल्लीलानुस्मरणान्नैतच्चित्रमित्याह- ब्रह्मराशीनां तत्तच्चतुर्भुजस्तावक- विधिसमूहानां महः प्रकाशो यस्मात्। विधातृविधातुः कियदिदमिति भावः। “यस्य प्रभा” इत्यादि ‘तद्ब्रह्म’[2] इत्यनन्तब्रह्मसंहितोक्तानुसारेण “परात्परं ब्रह्म च ते विभूतयः” (यमुनाचार्यस्तोत्र) इति श्रीरामानुजीयसिद्धान्तानुसारेण च निर्गुणब्रह्मपुञ्जं महः कान्तिपूरो यस्येति केचिद् व्याख्यान्ति। तथैव श्रीगीतासु[3] च ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहमिति प्रतिष्ठाश्रय इति।।77।।
‘आस्वादबिन्दु’ टीका इसके पश्चात् श्रीलीलाशुक गोपवनिताओं के कुचकुंकुम द्वारा रञ्जित होने से मनोज्ञकान्तियुक्त एवं अपूर्व वेणुवादक श्रीकृष्ण को देखकर विस्मय के साथ बोले- इन श्रीकृष्ण को मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। आदरवश ‘नमो नमः’ दो बार कह रहे हैं। कैसे कृष्ण ? गोपवनिताओं के स्तनों से संबंध होने के कारण जो कुंकुम धन्य है, उसी कुंकुम द्वारा जिनकी अंगकान्ति और अंगगन्ध स्वाभाविकरूप से ही कुंकुम की तरह उत्कृष्ट है, फिर वही कुंकुम उनके कुचों से लगकर कान्ति और सौरभ की अतिशयता पाकर धन्य हो गया है। विरह के समय गोपियों की कान्ति म्लान हो गई थी, अब वे भी श्रीकृष्ण का आलिंगन आदि पाकर आनन्द-उत्फुल्लता से सनाथ हो गई हैं। फिर विधाता की सृष्टि से बाहर वेणुगीत की जो गति है- स्वरर ग्राम मूर्छना आदि उसके प्रथम स्रष्टा श्रीकृष्ण हैं। युगलगीत वर्णन में आता है।
- “सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः शक्रसर्व-परमेष्ठिपुरोगाः।
- कवय आनतकन्धरचित्ताः कम्मलं ययुरनिश्चिततत्त्वाः।।”[4]
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