श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
यह बात अपने अनुभव से ही जानी जा सकती है। फिर ‘चातुर्यसीम’- जिसमें चातुर्य की सीमा है, उनके अनुभव से ही मेरा चातुर्य स्फुरित है। और कैसे हैं? ‘चतुरानन-शिलसीम’ जो ब्रह्मा के रचनाकौशल की सीमा हैं- इसके बाद और उनका सृष्टि कौशल नहीं। श्रीकृष्ण का विग्रह तो नित्य, सच्चिदानन्दघन है, विधाता का रचा नहीं। यह केवल लोकदृष्टि की उक्ति है। अथवा ‘चतुरा’ विचित्रा आनन में शिल्प की अर्थात् तिलक रचना की जो परिपाटी है, वे उसकी भी सीमा हैं। अथवा ‘चतुरा‘ का अर्थ है प्रेमिकगोष्ठी, उन लोगों का विचित्र कवित्व आदि रचने का जो कौशल है, श्रीकृष्ण ही उसकी सीमा हैं। अर्थात् प्रेमिक कवियों की काव्यरचना के विषयतत्त्व श्रीकृष्ण ही हैं। फिर जिनमें सौगन्ध की भी सीमा है। जो ‘सकलाद्भुतकेलिसीम’ अर्थात् सकला या कलासहित श्रीकृष्ण की जो अद्भुत केलि या क्रीड़ा है, उसकी सीमा या परावधि भी श्रीकृष्ण हैं। फिर सौभाग्यसीम अर्थात् सौन्दर्य के भी परावधिस्वरूप।।74।।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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