श्रीकृष्णकर्णामृतम् -श्रीमद् अनन्तदास बाबाजी महाराज
‘हे उद्धव ! मुझे तुम जितने प्रियतम हो, उतने प्रिय ब्रह्मा मेरे पुत्र होकर भी नहीं, शंकर मेरे स्वरूपभूत’होकर भी, संकर्षण मेरे भ्रात होकर भी, लक्ष्मी मेरी प्रिया होकर भी नहीं हैं- यहाँ तक कि मैं स्वयं भी अपने को उतना प्रिय नहीं। इससे भी स्वरूपानन्द मानसानन्द और ऐश्वर्यानन्द की अपेक्षा भक्त्यानन्द की उतकृष्टता स्पष्टतः सुसिद्ध होती है। प्रश्न हो सकता है, क्षुद्र जैव आधार (जीव) में स्थित प्रेमानन्द विभु भगवान् के स्वरूपानन्द ऐश्वर्यानन्द और मानसान्द से भी अधिक आस्वाद्य हो सकता है- इस बात की युक्ति कहाँ है? प्रमाण क्या है? इसके उत्तर में कहा जा रहा है- भक्ति भगवान् की स्वरूपशक्ति ह्लादिनी की सारवृत्तिविशेष है। श्रीजीवपाद ने लिखा है- “तस्या ह्लादिन्या एवं क्वापि सर्वानन्दातिशायिनी वृत्ति र्नित्यं भक्तवृन्देष्वेव निक्षिप्यमाणा भगवत्प्रीत्या ख्यया वर्तते।” (प्रीतिसंदर्भ) भगवान् की स्वरूपशक्ति ह्यादिनी की कोई सर्वानन्दातिशायिनी सारवृत्तिविशेष भगवान् द्वारा भक्तवृन्द में निक्षिप्त होकर भगवत्प्रीति नाम धारण करती है। जैसे स्वाति नक्षत्र की बूँद सीपी में गिर कर महामूल्यवान् मुक्ता में बदल जाती है, जैसे वंशीवादक का फुत्कारविशेष वंशीरूपी आधार में प्रविष्ट होकर वंशीवादक और श्रोता सभी के लिए चित्ताकर्षक बन जाता है, से ही भगवान् की स्वरूपशक्ति ह्लादिनी की वृत्तिविशेष जैवाधार में प्रविष्ट होकर जब प्रेमरूप में बदलती है, तो वह भगवान् के लिए सर्वाधिक चित्ताकर्षक होती है। तभी भक्त के प्रेम में आनन्दस्वरूप भगवान् को अधिक आनन्द की प्राप्ति युक्तिसिद्धि है। फिर सभी भक्तों में वरीयती (श्रेष्ठ) व्रजबालाओं के प्रेम का आस्वादन सबसे ऊपर है, यह बात स्वतः सिद्ध होती है। इसलिए व्रजबालाओं को देखकर उनके मुखचंद्र पर सर्वाधिक आनन्द प्रकाशित होना ही स्वाभाविक है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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