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ब्रह्म वैवर्त पुराण
श्रीकृष्ण जन्म खण्ड (उत्तरार्द्ध): अध्याय 71-72
शुभ लग्न में यात्रा संबंधी मंगलकृत्य करके श्रीकृष्ण का मथुरापुरी को प्रस्थान, पुरी की शोभा का वर्णन, कुब्जा पर कृपा, माली को वरदान, धोबी का उद्धार, कुब्जा का गोलोकगमन, कंस का दुःस्वप्न, रंगभूमि में कंस का पधारना, धनुर्भंग, हाथी का वध, कंस का उद्धार, उग्रसेन को राज्यदान, माता-पिता के बन्धन काटना, वसुदेव जी द्वारा नन्द आदि का सत्कार और ब्राह्मणों को दान श्रीनारायण कहते हैं- नारद! जब वायु से सुवासित, चन्दननिर्मित और फूलों से बिछी हुई शय्या पर राधिका जी सो गयीं तथा गोपिकाएँ भी गाढ़ निद्रा में निमग्न हो गयीं, तब रात में तीसरे पहर के बीत जाने पर शुभ बेला में शुभ नक्षत्र से चंद्रमा का संयोग होने पर अमृतयोग से युक्त लग्न आया। लग्न के स्वामी शुभ ग्रहों में से कोई एक अथवा बुध थे। उस लग्न पर शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। पापग्रहों के संयोग से दुर्योग या दोष आदि प्राप्त होते हैं, उनका उस लग्न में सर्वथा अभाव था। ऐसे समय में श्रीहरि ने स्वयं उठकर माता यशोदा को जगाया, मंगल-कृत्य करवाया और बन्धुजनों को आश्वासन दिया। जो विश्व-ब्रह्माण्ड के स्वतंत्र कर्ता और स्वतंत्र पालक हैं, उन्हीं भगवान ने राधिका जी के भय से भीत से होकर बाजा बजाने की मनाही कर दी। वे दोनों पैर धोकर दो शुद्ध वस्त्र धारण करके चंदन आदि से लिपे हुए शुद्ध स्थान में बैठे। उनके वामभाग में चंदन आदि से सुसज्जित तथा फल और पल्लव से युक्त भरा हुआ कलश रखा गया। दाहिने भाग में प्रज्वलित अग्नि तथा ब्राह्मणदेवता उपस्थित हुए। सामने पति-पुत्रवती सती साध्वी स्त्री, प्रज्वलित दीपक और दर्पण प्रस्तुत किये गये। पुरोहित जी ने सुस्निग्ध दूर्वाकाण्ड, श्वेत पुष्प तथा शुभसूचक श्वेत धान्य श्यामसुंदर के हाथ में दिये। उन सबको लेकर उन्होंने मस्तक पर रख लिया। तत्पश्चात श्रीहरि ने घी, मधु, चाँदी; सोना और दही के दर्शन किए। ललाट में चंदन का लेप करके गले में पुष्पमाला धारण की। गुरुजनों तथा ब्राह्मण के चरणों में भक्तिभाव से मस्तक झुकाया और शंखध्वनि, वेदपाठ, संगीत, मंगलाष्टक एवं ब्राह्मण के मनोहर आशीर्वाद बड़े आदर के साथ सुने। सर्वत्र मंगल प्रदान करने वाले अपने ही मंगलमय स्वरूप का ध्यान करके उन्होंने परम सुंदर दाहिने पैर को आगे बढ़ाया। नासिका के वामभाग से वायु को भीतर भरकर भगवान ने मध्यमा अंगुलि से वामरन्ध्र को दबाया और नाक के दाहिने छिद्र से उस वायु को बाहर निकाल दिया। तत्पश्चात नन्दनन्दन नन्द के श्रेष्ठ प्रांगण में सानन्द आये। वे परमानन्दमय, नित्यानन्द स्वरूप तथा सनातन हैं। नित्य-अनित्य सब उन्हीं के रूप हैं। वे नित्यबीज स्वरूप, नित्यविग्रह, नित्यांगभूत, नित्येश तथा नित्यकृत्यविशारद हैं। उनके रूप, यौवन, वेश-भूषा तथा किशोर-अवस्था सभी नित्य नूतन हैं। उनके सम्भाषण, प्रेम-प्राप्ति, सौभाग्य, सुधा रस से सराबोर मीठे वचन, भोजन तथा पद भी नित्य नवीन हैं। इस अत्यंत रमणीय प्रांगण में खड़े-खड़े मायायुक्त मायेश्वर अत्यंत स्नेह में डूब गये। तत्पश्चात् वे वहाँ से जाने को उद्यत हुए। केले के सुंदर खम्भों और रेशमी डोरे में गुँथे हुए आम्र-पल्लवं की बन्दनवारों से उस आँगन को सजाया गया था। विश्वकर्मा ने उसकी फर्श में पद्मराग मणि जड़ दी थी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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