श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं अर्थ- वे उस विशाल स्वर्गलोक के भोगों को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आ जाते हैं। इस प्रकार तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्म का आश्रय लिए हुए भोगों की कामना करने वाले मनुष्य आवागमन को प्राप्त होते हैं। व्याख्या- ‘ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं.......कामकामा लभन्ते’- स्वर्गलोक भी विशाल (विस्तृत) है, वहाँ की आयु भी विशाल (लम्बी) है और वहाँ की भोग-सामग्री भी विशाल (बहुत) है। इसलिए इंद्रलोक को ‘विशाल’ कहा गया है। स्वर्ग की प्राप्ति चाहने वाले न तो भगवान का आश्रय लेते हैं और न भगवत्प्राप्ति के किसी साधन का ही आश्रय लेते हैं। वे तो केवल तीनों वेदों में कहे हुए सकाम धर्मों (अनुष्ठानों) का ही आश्रय लेते हैं। इसलिए उनको त्रयीधर्म के शरण बताया गया है। ‘गतागतम्’ का अर्थ है- जाना और आना। सकाम अनुष्ठान करने वाले स्वर्ग के प्रापक जिन पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्ग में जाते हैं, उन पुण्यों के समाप्त होने पर वे पुनः मृत्युलोक में लौट आते हैं। इस प्रकार उनका घटीयन्त्र की तरह बार-बार सकाम शुभकर्म करके स्वर्ग में जाने और फिर लौटकर मृत्युलोक में आने का चक्कर चलता ही रहता है। इस चक्कर में वे कभी छूट नहीं पाते। अगर पूर्वश्लोक में आए ‘पूतपापाः’ पद से जिनके संपूर्ण पाप नष्ट हो गए हैं और यहाँ आए ‘क्षीणे पुण्ये’ पदों से जिनके संपूर्ण पुण्य क्षीण हो गए हैं- ऐसा अर्थ लिया जाए, तो उनको[1] मुक्त हो जाना चाहिए? परंतु वे मुक्त नहीं होते, प्रत्युक्त आवागमन को प्राप्त होते हैं। इसलिए यहाँ ‘पूतपापाः’ पद से वे लिए गए हैं, जिनके स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप यज्ञ करने से नष्ट हो गए हैं और ‘क्षीणे पुण्ये’ पदों से वे लिए गए हैं, जिनके स्वर्ग के प्रापक पुण्य वहाँ का सुख भोगने से समाप्त हो गए हैं। अतः संपूर्ण पापों और पुण्यों के नाश की बात यहाँ नहीं आयी है। संबंध- जो त्रयीधर्म का आश्रय लेते हैं, उनको तो देवताओं से प्रार्थाना-याचना करना पड़ता है; परंतु जो केवल मेरा ही आश्रय लेते हैं, उनको अपने योगक्षेम के लिए मन में चिन्ता, संकल्प अथवा याचना नहीं करनी पड़ती- यह बात भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पाप-पुण्य दोनों क्षीण होने से
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