श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
क्रतु, यज्ञ आदि का अनुष्ठान करने के लिए जिन ऋचाओं का उच्चारण किया है, उन सबमें सबसे पहले ‘ऊँ’ का ही उच्चारण किया जाता है। इसका उच्चारण करने से ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वेदवादियों की यज्ञ, दान, तप आदि सभी क्रियाएँ ‘ऊँ’ का उच्चारण करके ही आरंभ होती हैं।[2] वैदिक के लिए प्रणव का उच्चारण मुख्य है। इसलिए भगवान ने प्रणव को अपना स्वरूप बताया है। उन क्रतु, यज्ञ आदि की विधि बताने वाले ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद- ये तीनों वेद हैं। जिसमें नियताक्षर वाले मंत्रों की ऋचाएँ होती हैं, उन ऋचाओं के समुदाय को ‘ऋग्वेद’ कहते हैं। जिसमें स्वरोंसहित गाने में आने वाले मंत्र होते हैं, वे सब मंत्र ‘सामवेद’ कहलाते हैं। जिसमें अनियताक्षर वाले मंत्र होते हैं, वे मंत्र ‘यजुर्वेद’ कहलाते हैं।[3] ये तीनों वेद भगवान के ही स्वरूप हैं। ‘पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः’- इस जड़-चेतन, स्थावर-जंगम आदि सम्पूर्ण संसार को मैं ही उत्पन्न करता हूँ- ‘अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः’[4] और बार-बार अवतार लेकर मैं ही इसकी रक्षा करता हूँ। इसलिए मैं ‘पिता’ हूँ। ग्यारहवें अध्याय के तैंतालीसवें श्लोक में अर्जुन ने भी कहा है कि ‘आप ही इस चराचर जगत के पिता हैं’- ‘पितासि लोकस्य चराचरस्य।’ इस संसार को सब तरह से मैं ही धारण करता हूँ और संसारमात्र का जो कुछ विधान बनता है, उस विधान को बनाने वाला भी मैं हूँ। इसलिए मैं ‘धाता’ हूँ। जीवों की अपने-अपने कर्मों के अनुसार जिस-जिस योनि में, जैसे-जैसे शरीरों की आवश्यकता पड़ती है, उस-उस योनि में वैसे-वैसे शरीरों को पैदा करने वाली ‘माता’ मैं हूँ अर्थात मैं संपूर्ण जगत की माता हूँ। प्रसिद्धि में ब्रह्मा जी संपूर्ण सृष्टि को पैदा करने वाले हैं- इस दृष्टि से ब्रह्मा जी प्रजा के पिता हैं। वे ब्रह्मा जी भी मेरे से प्रकट होते हैं- इस दृष्टि से मैं ब्रह्मा जी का पिता और प्रजा का ‘पितामह’ हूँ। अर्जुन ने भी भगवान को ब्रह्मा के आदिकर्ता कहा है- ‘ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे’।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 18:5
- ↑ गीता 17:24
- ↑ जिन मंत्रों में अस्त्र-शस्त्र, भवन आदि का निर्माण करने वाली लौकिक विद्याओं का वर्णन हैं, वे सब मंत्र ‘अथर्ववेद’ कहलाते हैं। यद्यपि अनुसमुधयार्थ ‘च’ अव्यय से अथर्ववेद का ग्रहण किया जा सकता है, तथापि उसमें लौकिक विद्याओं का वर्णन होने से क्रतु, यज्ञ आदि के अनुष्ठान में उसका नाम नहीं लिया गया है। इसी कारण से आगे बीसवें-इक्कीसवें श्लोकों में आये ‘त्रैविद्याः’ और ‘त्रयीधर्ममनुप्रपन्नाः’ पदों में भी ऋक्, साम, यजु.- इन तीनों का ही संकेत किया गया है।
- ↑ गीता 7:6
- ↑ गीता 11:37
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