श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
‘भक्त्या कीर्तयन्तो माम्’- वे भक्त प्रेमपूर्वक कभी भगवान के नाम का कीर्तन करते हैं, कभी नाम-जप करते हैं, कभी पाठ करते हैं, कभी नित्यकर्म करते हैं, कभी भगवत संबंधी बातें सुनाते हैं; आदि-आदि। वे जो कुछ वाणी संबंधी क्रियाएँ करते हैं, वह सब भगवान का स्रोत ही होता है- ‘स्तोत्राणि सर्वा गिरः।’ ‘नमस्यन्तश्च’- वे भक्ति पूर्वक भगवान को नमस्कार करते हैं। उनमें सद्गुण-सदाचार आते हैं, उनके द्वारा भगवान के अनुकूल कोई चेष्टा होती है, तो वे इस भाव से भगवान को नमस्कार करते हैं कि ‘हे नाथ! यह सब आपकी कृपा से ही हो रहा है। आपकी तरफ इतनी अभिरुचि और तत्परता मेरे उद्योग से नहीं हुई है। अतः इन सद्गुण सदाचारों को, इस साधन को आपकी कृपा से हुआ समझकर मैं तो आपको केवल नमस्कार ही कर सकता हूँ।’ ‘सततं मां उपासते’- इस प्रकार मेरे अनन्यभक्त निरंतर मेरी उपासना करते हैं। निरंतर उपासना करने का तात्पर्य है कि वे कीर्तन-नमस्कार आदि के सिवाय जो भी खाना-पीना, सोना-जगना तथा व्यापार करना, खेती करना आदि साधारण क्रियाएँ करते हैं, उन सबको भी मेरे लिए ही करते हैं। उनकी संपूर्ण लौकिक, पारमार्थिक क्रियाएँ केवल मेरे उद्देश्य से, मेरी प्रसन्नता के लिए ही होती है। संबंध- अनित्य संसार से संबंध-विच्छेद करके नित्य-तत्त्व की तरफ चलने वाले साधक कई प्रकार के होते हैं। उनमें से भक्ति के साधकों का वर्णन पीछे के दो श्लोकों में कर दिया, अब दूसरे साधकों का वर्णन आगे के श्लोक में करते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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