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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढ़व्रताः । अर्थ- नित्य (मेरे में) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगन पूर्वक साधन में लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन करते हुए तथा नमस्कार करते हुए निरंतर मेरी उपासना करते हैं। व्याख्या- ‘नित्ययुक्ताः’- मात्र मनुष्य भगवान में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं, हरदम लगे रह सकते हैं, सांसारिक भोगों और संग्रह में नहीं। कारण कि समय-समय पर भोगों से भी ग्लानि होती है और संग्रह से भी उपरति होती है। परंतु भगवान की प्राप्ति का भगवान की तरफ चलने का जो एक उद्देश्य बनता है, एक दृढ़ विचार होता है, उसमें कभी भी फर्क नहीं पड़ता। भगवान का अंश होने से जीव का भगवान के साथ अखंड संबंध है। मनुष्य जब तक उस संबंध को नहीं पहचानता, तभी तक वह भगवान से विमुख रहता है, अपने को भगवान से अलग मानता है। परंतु जब वह भगवान के साथ अपने नित्य-संबंध को पहचान लेता है, तो फिर वह भगवान के सम्मुख हो जाता है, भगवान से अलग नहीं रह सकता और उसको भगवान के संबंध की विस्मृति भी नहीं होती- यही उसका ‘नित्युक्त’ रहना है। मनुष्य का भगवान के साथ ‘मैं भगवान का हूँ और भगवान मेरे हैं’- ऐसा जो स्वयं का संबंध है, वह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति- इन अवस्थाओं में, एकान्त में भजन ध्यान करते हुए अथवा सेवारूप से संसार के सब काम करते हुए भी कभी खंडित नहीं होता, अटल रूप से सदा ही बना रहता है। जैसे मनुष्य अपने को जिस माँ-बाप का मान लेता है, सब काम करते हुए भी उसका ‘मैं अमुक का लड़का हूँ’ यह भाव सदा बना रहता है। उसको याद रहे चाहे न रहे, वह याद करे चाहे न करे, पर यह भाव हरदम रहता है; क्योंकि ‘मैं अमुक का लड़का हूँ’- यह भाव उसके ‘मैं’-पन में बैठ गया है ऐसे ही जो ‘अनादि, अविनाशी, सर्वोपरि भगवान ही मेरे हैं और मैं उनका ही हूँ’- इस वास्तविकता को जान लेता है, मान लेता है, तो यह भाव हरदम बना रहता है। इस प्रकार भगवान के साथ अपना वास्तविक संबंध मान लेना ही ‘नित्ययुक्त’ होना है। ‘दृढव्रताः’- जो सांसारिक भोग और संग्रह में लगे हुए हैं, वे जो पारमार्थिक निश्चय करते हैं, वह निश्चय दृढ़ नहीं होता।[1] परंतु जिन्होंने भीतर से ही अपने मैं-पन को बदल दिया है कि ‘हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं’, उनका यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि ‘हम संसार के नहीं है और संसार हमारा नहीं है’; अतः हमें सांसारिक भोग और संग्रह की तरफ कभी जाना ही नहीं है, प्रत्युत भगवान के नाते केवल सेवा कर देनी है। इस प्रकार उनका निश्चय बहुत दृढ़ होता है। अपने निश्चय से वे कभी विचलित नहीं होते। कारण कि उनका उद्देश्य भगवान का है और वे स्वयं भी भगवान के अंश हैं। उनके निश्चय में अदृढ़ता आने का प्रश्न ही नहीं है। अदृढ़ता तो सांसारिक निश्चय में आती है, जो कि टिकने वाला नहीं है। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2:44
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