श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
नवम अध्याय
‘ज्ञानं विज्ञानसहितम्’- भगवान इस संपूर्ण जगत के महाकारण है- ऐसा दृढ़ता से मानना ‘ज्ञान’ है और भगवान के सिवाय दूसरा कोई (कार्य-कारण) तत्त्व नहीं है- ऐसा अनुभव होना ‘विज्ञान’ है। इस विज्ञानसहित ज्ञान के लिए ही इस श्लोक के पूर्वार्ध में ‘इदम्’ और ‘गुह्यतमम्’- ये दो विशेषण आये हैं। ज्ञान और विज्ञान-संबंधी विशेष बात इस ज्ञान-विज्ञान को जानकर तू अशुभ संसार से मुक्त हो जाएगा। यह ज्ञान-विज्ञान की राजविद्या, राजगुह्य आदि है। इस धर्म पर जो श्रद्धा नहीं करते, इस पर विश्वास नहीं करते, इसको मानते नहीं, वे मौतरूपी संसार के रास्ते में पड़ जाते हैं और बार-बार जन्मते-मरते रहते हैं[1]- ऐसा कहकर भगवान ने ‘ज्ञान’ बताया। अव्यक्तमूर्ति मेरे से ही यह संपूर्ण संसार व्यास है अर्थात सब कुछ मैं ही मैं हूँ; दूसरा कोई है ही नहीं[2]- ऐसा कहकर भगवान ने ‘विज्ञान’ बताया। प्रकृति के परवश हुए संपूर्ण प्राणी महाप्रलय में मेरी प्रकृति को प्राप्त हो जाते हैं और महासर्ग के आदि में मैं फिर उनकी रचना करता हूँ। परंतु वे कर्म मेरे को बाँधते नहीं। उनमें मैं उदासीन की तरह अनासक्त रहता हूँ। मेरी अध्यक्षता में प्रकृति संपूर्ण प्राणियों की रचना करती है। मेरे परम भाव को न जानते हुए मूढ़ लोग मेरी अवहेलना करते हैं। राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों की आशा, कर्म, ज्ञान सब व्यर्थ हैं। महात्मा लोग दैवी प्रकृति का आश्रय लेकर और मेरे को संपूर्ण प्राणियों का आदि मानकर मेरा भजन करते हैं। मेरे को नमस्कार करते हैं। कई ज्ञानयज्ञ के द्वारा एकीभाव से मेरी उपासना करते हैं; आदि-आदि[3]- ऐसा कहकर भगवान ने ‘ज्ञान’ बताया। मैं ही क्रतु, यज्ञ, स्वधा, औषध आदि हूँ और सत्-असत् भी मैं ही हूँ अर्थात कार्य-कारणरूप से जो कुछ है, वह सब मैं ही हूँ[4]- ऐसा कहकर ‘विज्ञान’ बताया। जो यज्ञ करके स्वर्ग में जाते हैं, वे वहाँ पर सुख भोगते हैं और पुण्य समाप्त होने पर फिर लौटकर मृत्युलोक में आते हैं। अनन्यभाव से मेरा चिंतन करने वाले का योगक्षेम मैं स्वयं वहन करता हूँ। श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओं का पूजन करने वाले वास्तव में मेरा ही पूजन करते हैं, पर करते हैं अविधिपूर्वक। जो मुझे संपूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी नहीं मानते, उनका पतन हो जाता है। जो श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प आदि को तथा संपूर्ण क्रियाओं को मेरे अर्पण करते हैं, वे शुभ-अशुभ कर्मों से मुक्त हो जाते हैं[5]- ऐसा कहकर भगवान ने ‘ज्ञान’ बताया। मैं संपूर्ण भूतों में सम हूँ। मेरा कोई प्रेम या द्वेष का पात्र नहीं है। परंतु जो मेरा भजन करते हैं वे मेरे में और मैं उनमें हूँ[6]- ऐसा कहकर ‘विज्ञान’ बताया। इसके आगे के पाँच श्लोक[7] इस विज्ञान की व्याख्या में ही कहे गए हैं।[8] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 9।1-3
- ↑ गीता 9।4-6
- ↑ गीता 9।7-15
- ↑ गीता 9।16-19
- ↑ गीता 9।20-28
- ↑ गीता 9:29
- ↑ गीता 9।30-34
- ↑ यहाँ ज्ञान के वर्णन में विज्ञान और विज्ञान के वर्णन में ज्ञान नहीं है- ऐसी बात नहीं है।
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