श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते । अर्थ- हे पार्थ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृति के परवश हुआ ब्रह्मा के दिन के समय उत्पन्न होता है और ब्रह्मा की रात्रि के समय लीन होता है। व्याख्या- ‘भूतग्रामः स एवायम्’- अनादिकाल से जन्म-मरण के चक्कर में पड़ा हुआ यह प्राणिसमुदाय वही है, जो कि साक्षात मेरा अंश, मेरा स्वरूप है। मेरा सनातन अंश होने से यह नित्य है। सर्ग और प्रलय तथा महासर्ग और महाप्रलय में यही था और आगे भी यही रहेगा। इसका न कभी अभाव हुआ है और न आगे कभी इसका अभाव होगा। तात्पर्य है कि यह अविनाशी है, इसका कभी विनाश नहीं नहीं होता। परंतु भूल से यह प्रकृति के साथ अपना संबंध मान लेता है। प्राकृत पदार्थ[1] तो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, पर यह उनके संबंध को पकड़े रहता है। यह कितने आश्चर्य की बात है कि संबंधी[2] तो नहीं रहते, पर उनका संबंध रहता है; क्योंकि उस संबंध को नहीं छोड़ता, तब तक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। उस संबंध को छोड़ने में यह स्वतंत्र है, सबल है। वास्तव में यह उस संबंध को रखने में सदा परतंत्र है; क्योंकि वे पदार्थ तो हरदम बदलते रहते हैं, पर यह नया-नया संबंध पकड़ता रहता है, जैसे, बालकपन को इसने नहीं छोड़ा और न छोड़ना चाहा, पर वह छूट गया। ऐसे ही जवानी को इसने नहीं छोड़ा, पर वह छूट गयी। और तो क्या, यह शरीर को भी छोड़ना नहीं चाहता, पर वह भी छूट जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राकृत पदार्थ तो छूटते ही रहते हैं, पर यह जीव उन पदार्थों के साथ अपने संबध को बनाये रखता है, जिससे इसको बार-बार शरीर धारण करने पड़ते हैं, बार-बार जन्मना-मरना पड़ता है। जब तक यह उस माने हुए संबंध को नहीं छोड़ेगा, तब तक यह जन्म-मरण की परंपरा चलती ही रहेगी, कभी मिटेगी नहीं। भगवान के द्वारा अकेले खेल नहीं हुआ[3] तो खेल खेलने के लिए अर्थात प्रेम का आदान-प्रदान करने के लिए भगवान ने इस प्राणिसमुदाय को शरीर रूप खिलौने के सहित प्रकट किया। खेल का यह नियम होता है कि खेल के पदार्थ केवल खेलने के लिए ही होते हैं, किसी के व्यक्तिगत नहीं होते। परंतु यह प्राणिसमुदाय खेल खेलना तो भूल गया और खेल के पदार्थों को अर्थात शरीर को व्यक्तिगत मानने लग गया। इसी से यह उनमें फँस गया और भगवान से सर्वथा विमुख हो गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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