श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
‘रात्रयागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे’- यहाँ ‘अवशः’ कहने का तात्पर्य है कि अगर यह जीव प्रकृति की वस्तुओं में से किसी भी वस्तु को अपनी मानता रहेगा तो उसको वहम तो यह होगा कि ‘मैं इस वस्तु का मालिक हूँ’, पर हो जाएगा स वस्तु के परवश, पराधीन। प्राकृत पदार्थों को यह जितना ही अधिक ग्रहण करेगा, उतना ही यह महान परतंत्र बनता चला जाएगा। फिर इसकी परतंत्रता कभी छूटेगी ही नहीं है। ब्रह्मा जी के जगने और सोने पर अर्थात सर्ग और प्रलय के होने पर[1], ब्रह्मा जी के प्रकट और लीन होने पर अर्थात महासर्ग और महाप्रलय के होने पर[2] तथा वर्तमान में प्रकृति के परवश होकर कर्म करते रहने पर[3] भी यह जीव ‘जन्मना और मरना तथा कर्म करना और उसका फल भोगना’- इस आफत से कभी छूटेगा ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि जब तक परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती, बोध नहीं होता और यह प्रकृति के संबंध को नहीं छोड़ता, तब तक परतंत्र होने के कारण यह दुःखरूप जन्म-मरण के चक्कर से छूट नहीं सकता। परंतु जब इसकी प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थों की परवशता मिट जाती है अर्थात इसको प्रकृति के संबंध से सर्वथा रहित अपने शुद्ध स्वरूप का बोध हो जाता है, तो फिर यह महासर्ग में भी उत्पन्न नहीं होता और महाप्रलय में भी व्यथित नहीं होता- ‘सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च’।[4] मूल में परवशता प्रकृतिजन्य पदार्थों को महत्त्व देते, उनको स्वीकार करने में ही है। इस परवशता को ही कहीं काल की, कहीं स्वभाव की, कहीं कर्म की और कहीं गुणों की परवशता के नाम से कहा गया है। इस प्राणिसमुदाय की यह परवशता तभी तक रहती है, जब तक यह प्राकृत पदार्थों के संयोग से सुख लेना चाहता है। इस संयोगजन्य सुख की इच्छा से ही यह पराधीनता भोगता रहता है और ऐसा मानता रहता है कि यह पराधीनता छूटती नहीं, इसको छोड़ना बड़ा कठिन है। परंतु यह परवशता इसकी ही बनायी हुई है, स्वतः नहीं है। अतः इसको छोड़ने की जिम्मेवारी इसी पर है। इसको यह जब चाहे, तभी छोड़ सकता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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