श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टम अध्याय
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहराग मे । अर्थ- ब्रह्मा जी के दिन के आरंभकाल में अव्यक्त[1] से संपूर्ण प्राणी पैदा होते हैं और ब्रह्मा जी की रात के आरंभकाल में उसी अव्यक्त में संपूर्ण प्राणी लीन हो जाते हैं। व्याख्या- ‘अव्यक्ताद्व्यक्तयः...........तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके’- मात्र प्राणियों के जितने शरीर हैं, उनको यहाँ ‘व्यक्तयः’ और चौदहवें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘मूर्तयः’ कहा गया है। जैसे, जीवकृत सृष्टि अर्थात ‘मैं’ और ‘मेरापन’ को लेकर जीव की जो सृष्टि है, जीव के नींद से जगने पर वह सृष्टि जीव से ही पैदा होती है और नींद के आ जाने पर वह सृष्टि जीव में ही लीन हो जाती है। ऐसे ही जो यह स्थूल समष्टि सृष्टि दिखती है, वह सब-की-सब ब्रह्मा जी के जगने पर उनके सूक्ष्म शरीर से अर्थात प्रकृति से पैदा होती है और ब्रह्मा जी के सोने पर उनके सूक्ष्मशरीर में ही लीन हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि ब्रह्मा जी के जगने पर तो ‘सर्ग’ होता है और ब्रह्मा जी के सोने पर ‘प्रलय’ होता है। जब ब्रह्मा जी की सौ वर्ष की आयु बीत जाती है, तब ‘महाप्रलय’ होता है, जिसमें ब्रह्मा जी भी भगवान में लीन हो जाते हैं। ब्रह्मा जी की जितनी आयु होती है, उतना ही महाप्रलय का समय रहता है। महाप्रलय का समय बीतने पर ब्रह्मा जी भगवान से प्रकट होते हैं तो ‘महासर्ग’ का आरंभ होता है।[2] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ब्रह्मा जी के सूक्ष्म-शरीर
- ↑ गीता 9।7-8
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