श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय यह देही जब प्रकृति को छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है, तब यह अपने-आपसे अपने-आपको जान लेता है। यह जानना सांसारिक वस्तुओं को जानने का अपेक्षा सर्वथा विलक्षण होता है, इसलिए इसको ‘आश्चर्यवत् पश्यति’ कहा गया है। यहाँ भगवान ने कहा है कि अपने आपका अनुभव करने वाला कोई एक ही होता है- ‘कश्चित्’ और आगे सातवें अध्याय के तीसरे श्लोक में भी यही बात कही है कि कोई एक मनुष्य ही मेरे को तत्त्व से जानता है- ‘कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः ।’ इन पदों से ऐसा मालूम होता है कि इस अविनाशी तत्त्व को जानना बड़ा कठिन है, दुर्लभ है। परंतु वास्तव में ऐसी बात नहीं है। इस तत्त्व को जानना कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है, प्रत्युत इस तत्त्व को सच्चे हृदय से जानने वाले की इस तरफ लगने वाले की कमी है। यह कमी जानने की जिज्ञासा कम होने के कारण ही है। ‘आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः’- ऐसे ही दूसरा पुरुष इस देही का आश्चर्य की तरह वर्णन करता है; क्योंकि यह तत्त्व वाणी का विषय नहीं है। जिससे वाणी भी प्रकाशित होती है, वह वाणी उसका वर्णन कैसे कर सकती है? जो महापुरुष इस तत्त्व का वर्णन करता है वह तो शाखा-चंद्रन्याय की तरह वाणी से इसका केवल संकेत ही करता है, जिससे सुनने वाला का इधर लक्ष्य हो जाए। अतः इसका वर्णन आश्चर्य की तरह ही होता है। यहाँ जो ‘अन्यः’ पद आया है, उसका तात्पर्य यह नहीं है कि जो जानने वाला है, उससे यह कहने वाला अन्य है; क्योंकि जो स्वयं जानेगा ही नहीं, वह वर्णन क्या करेगा? अतः इस पद का तात्पर्य यह है कि जितने जानने वाले हैं, उनमें वर्णन करने वाला कोई एक ही होता है। कारण कि सब-के-सब अनुभवी तत्त्वज्ञ महापुरुष उस तत्त्व का विवेचन करके सुनने वाले को उस तत्त्व तक नहीं पहुँचा सकते। उसकी शंकाओं का, तर्कों का पूरी तरह समाधान करने की क्षमता नहीं रखते। अतः वर्णन करने वाले की विलक्षण क्षमता का द्योतन करने के लिए ही यह ‘अन्यः’ पद दिया गया है। ‘आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति’- दूसरा कोई इस देही को आश्चर्य की तरह सुनता है। तात्पर्य है कि सुनने वाला शास्त्रों की, लोक-लोकान्तरों की जितनी बातें सुनता आया है, उन सब बातों से इस देही को बात विलक्षण मालूम देती है। कारण कि दूसरा जो कुछ सुना है, वह सब-का-सब इंद्रियाँ मन, बुद्धि आदि का विषय है; परंतु यह देही इंद्रियों आदि का विषय नहीं है, प्रत्युत यह इंद्रियों आदि के विषय को प्रकाशित करता है। अतः इस देही की विलक्षण बात वह आश्चर्य की तरह सुनता है। यहाँ ‘अन्यः’ पद देने का तात्पर्य है कि जानने वाला और कहने वाला- इन दोनों से सुनने वाला[1] अलग है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तत्त्व का जिज्ञासु
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